Thursday, April 21, 2022


राजस्थान साहित्य अकादेमी की मासिक पत्रिका मधुमती में समकाल के नेपथ्य में पर महत्वपूर्ण  समीक्षा ---समीक्षक:चर्चित कथाकार श्री भालचंद जोशी जी।

समावर्तन में आपने व्यंग्य विधा के सशक्त हस्ताक्षर  डॉ.पिलकेन्द्र जी की गहन  समीक्षा पढ़ी।
 राजस्थान अकादेमी की मासिक पत्रिका मधुमती में कृति की समीक्षा प्रकाशित हुई है।
समीक्षक--इस दौर के चर्चित कथाकार , श्री भालचंद जोशी जी।

 मधुमती में समीक्षा प्रकाशन का अपना सुख है। किताब पर की गई  बहुमूल्य समीक्षा आप सभी के अवलोकनार्थ सादर
कुछ अंश मूलपाठ के साथ सलग्न ----
समय के बदलाव की व्यग्रता के निबंध
इस नए समय में परंपरा , इतिहास, धर्म और संस्कृति को लेकर निपट एकांगी और रूढ़ दृष्टि को सप्रयास विकसित कर सच की तरह स्थापित किया जा रहा है। लेकिन यह भी सुखद अचरज और तसल्ली की बात है कि इतिहास , धर्म और संस्कृति को लेकर गंभीर, तार्किक विश्लेषण और वैज्ञानिक अर्थ भी सामने आ रहे हैं। इसी समय रूढ़ आस्थाएँ और विज्ञान सम्मत विचार भी अपनी जगह बना रहे हैं। यह पीछे धकेलने का षड्यंत्र और आगे खींचने के साहस का एक ही समय है। इस पुस्तक के साफ आईने में इसी द्वंद्व की धुंधली परछाइयाँ हैं। आस्था और तर्क के सनातन संबंधों की संदर्भित व्याख्याएँ हैं। इन व्याख्याओं में विचार की समझ और ज्ञान की तृष्णा  देखी जा सकती है।
यही कारण है कि शोभा जैन 'आधुनिकता के ज्ञान के लिए परंपराओं का बोध होना जरूरी है'( आधुनिकता बनाम परंपरा- पृष्ठ- 48) के आग्रह  पर जोर देती हैं। चीजों और स्थितियों के बदलने के संक्रमण काल के संदर्भ में उन्हें यह भी याद आता है कि 'जहाँ न सिर्फ 5000 वर्ष पुरानी सभ्यताएँ हैं , बल्कि सांस्कृतिक और कलात्मकता का  बौद्धिक उत्कर्ष भी'(वही-पृष्ठ-वही) इसके लिए वे 'पाश्चात्य संस्कृति के अंधानुकरण' को जिम्मेदार ठहराती हैं। यहाँ आकर निराकरण की हड़बड़ी में उतर जाती हैं। 'पाश्चात्य संस्कृति के अंधानुकरण' के संदर्भ में  याद आता है और वे बताती हैं ,' जहाँ तीज- त्यौहार पर मोहल्ले गली और आसपास के पूरे वातावरण में उल्लास चारों और झलक पढ़ता था, जहाँ सांस्कृतिक या पौराणिक रूप से बल्कि कलात्मक और सर्जनात्मक रूप से भी मन की अनुभूतियों को अभिव्यक्त होने का अवसर मिलता था' ( वही- पृष्ठ- वही)इन उपलब्धियों और वैभव को नष्ट करने वाले अपराधी को वह तत्काल पकड़ भी लेती हैं, ' आधुनिकता के नाम पर यह उत्सवधर्मिता अब से सिमटती जा रही है।'(वही-पृष्ठ-वही) इस भाव प्रवण विश्लेषण में निराकरण के बेहद करीब पहुँच जाने के उपरांत किंचित अदेखी यह हो जाती है कि इस भूमंडलीकरणोत्तर समय में बाजार ही पूँजी की ललक में यह सारी लीला रच रहा है वरना हम दो सौ साल अंग्रेजों के गुलाम रहे और पाश्चात्य संस्कृति तो तब भी थी लेकिन पाश्चात्य संस्कृति और आधुनिकता के ऐसे डरावने दृश्य सामने नहीं आए थे। लेकिन इसमें कोई संदेह नहीं कि वे बदलते समय की गति में संस्कृति और परंपरा को को बहुत उत्सुकता और तल्लीनता से देख रही हैं। इसलिए यह बात उनके लिए स्पष्ट है कि,  'हम अपनी परंपराओं को जानने समझने का कार्य करते हैं, हमारा युगबोध सुदृढ़ होता चला जाता है।'( वही-पृष्ठ-50)
इस पुस्तक में विविध विषयों पर लेख हैं। इतने विविध विषयों पर लिखने का साहस जुटाना कोई सामान्य बात नहीं है। इन निबंधों को पढ़कर यह तो काफी हद तक स्पष्ट हो जाता है कि शोभा जीवन और समाज के सच को जानने समझने की गंभीर कोशिश में संलग्न है। निजी और अनुभूतिगत स्तर पर समझने की प्रक्रिया में अपने विश्लेषणों को इस तरह से अभिव्यक्त करती हैं कि वह किसी पूर्व सिद्ध धारणा की प्रतिलिपि न लगे। साथ ही निबंध में विषय के फैलाव में अंतर्निहित यथार्थ की अनुभूति को भाषा के कौशल में जाकर अर्थ निरपेक्ष होने से भी बचाती हैं। इसलिए कागज पर  शब्द महज भाषा का खेल या लिपि की चित्रकारी नहीं बल्कि अर्थ छवि की चित्रात्मकता होते हैं। वरना तो ज्ञान का कुबेर खजाना व्हाट्सएप और फेसबुक पर कोई कम नहीं फैला हुआ है। इस तरह के साहित्य या ज्ञान की निरर्थकता और खतरे की ओर भी शोभा संकेत करती हैं, 'सोशल मीडिया पर ज्ञान का महिमामंडन सबसे सरल संचार साधन है कापरा ने अपनी पुस्तक 'टर्निंग पॉइंट' में एक बात कही थी, 'हम एक ऐसी सदी में प्रवेश कर रहे हैं जहाँ ज्ञानबोध का संकट एक प्रकार से यूटोपिया और डायस्पोरिया  के बीच टकराहट के रूप नजर आएगा।'( हिंदी साहित्य समाज के हाशिए पर क्यों ?-पृष्ठ-55 ) यह सारा संकट बाजार ने सूचना और संचार तकनीक के फैलाव के रूप में खड़ा किया है। यह एक नया एडिक्शन है। नया रोग है। जिसमें सिर्फ यूरोपियन समाज और अंग्रेजी भाषा ही नहीं हिंदी भी फँसी है। लेखिका इसे एक नई चिंता दृष्टि के साथ देखती है,' हिंदी के साथ भी शायद यही संकट है क्योंकि हिंदी पाठक एक प्रकार की ऐसी साहित्यिक सरलता के यूटोपिया में जी रहा है कि वह विचार दर्शन, ज्ञान और साहित्य की गहन चुनौतियों से टकराना नहीं चाहता।' (वही-पृष्ठ-वही)  यह समस्या  और संकट तो उन  कच्चे- अध कच्चे लेखक नुमा लोगों पर लागू होती है जो व्हाट्सएप और फेसबुक पर लिखकर अपने ज्ञान के संप्रेषण की इतिश्री कर लेते हैं लेकिन इस परिधि से बाहर भी लेखकों की ऐसी जमात है जो बदलती हुई परिस्थितियों को चिंता के साथ देख रही है। इन लेखकों की चिंताएँ और द्वंद्व विचार के टूटने और पुनर्निर्माण के हैं। यह लेख और बेहतर हो जाता यदि इसमें इस द्वंद्व को लेकर भी विमर्श होता।  पुस्तक में ऐसे कुछ निबंध हैं जो जल्दी समेट लेने के मोह में विचार की आंतरिक संरचना के द्वंद्व की अपेक्षा शीघ्रता के सरलीकरण की ओर चले गए। जबकि लेखिका के पास विषयानुकूल दृष्टि और विस्तार की गुंजाइश थी।
इस पुस्तक में एक महत्वपूर्ण लेख है, 'साहित्यिक संदर्भ में समकालीनता: उत्तर पाठ एवं पुनरावलोकन' । साहित्य के संदर्भ में भी समकालीनता को देखा जाए तो भी उसके केंद्र में मनुष्य ही रहेगा और यह भली बात है कि इस लेख के सारे संदर्भ मनुष्यता के केंद्र में है।' निस्संदेह साहित्य जड़ की तरह स्थिर रह भी नहीं सकता क्योंकि उसका सीधा संबंध मनुष्य से है और मनुष्य की परिस्थितियाँ परिवेश, विचार भाव स्थिति अनुरूप बदलते रहते हैं।'( पृष्ठ-34) एक लेखक के लिए समकालीनता का पद मनुष्यता को लेकर  सम और विषम के संघर्ष को समय के संदर्भ में देखना समझना है। इसीलिए जब शोभा कहती हैं, 'साहित्य के इतिहास में समकालीनता एक मूल्य वाचक अवधारणा है लेकिन मूलतः है यह मूल्यबोधक ही।' (पृष्ठ-34-35) तो यह अंततः द्वंद्व के आंतरिक पद को तोड़ते हुए उसे परिचयात्मक आकार देने की ऐसी कोशिश है जो उसके अनुकूलन में संभव है। क्योंकि इस तरह इतिहास से विच्छेद हुए बगैर वर्तमान के बोध के साथ भविष्य की आकांक्षा को पोसना है। इस तरह काल की चेतना को इस तरह समयबद्ध करना कि अतीत, वर्तमान और भविष्य की छायाओं को स्पष्ट आकार मिले। इसलिए शोभा की इस बात से सहमति प्रकट की जा सकती है कि 'समकालीनता साहित्य के मूल्यांकन की कसौटी मानी गई है जिसका सीधा संबंध उसकी काल चेतना से है।'(पृष्ठ-35)

समकाल के नेपथ्य में--डॉ. शोभा जैन
प्रकाशक-- भावना प्रकाशन, दिल्ली
मूल्य--₹ 275
समीक्षक---भालचंद्र जोशी
13 एच.आई.जी. ओल्ड हाउसिंग बोर्ड कॉलोनी, जैतापुर, 
खरगोन 451 001 (म.प्र.)










 


नेशनल मैगजीन आऊटलुक में मेरे निबंध संग्रह समकाल के नेपथ्य में पर समीक्षा 
समीक्षक --वरिष्ठ पत्रकार अनिल जैन, नई दिल्ली 


https://www.outlookhindi.com/story/book-review-by-anil-jain-3492



 

                           https://www.outlookhindi.com/story/book-review-by-anil-jain-3492

                    नेशनल मैगजीन आऊटलुक में मेरे निबंध संग्रह समकाल के नेपथ्य में पर समीक्षा 

                                         समीक्षक --वरिष्ठ पत्रकार अनिल



जैन, नई दिल्ली 

Thursday, April 7, 2022

समीक्षा 'समकाल के नेपथ्य में'-- प्रतिबद्ध लेखिका 'मुकम्मल' व्यक्तित्व आदरणीय चित्रा मुद्गल दीदी की बहुमूल्य टिप्पणी
 कृति पर निरंतर प्राप्त बहुमूल्य टिप्पणियां उसकी सार्थकता के महत्वपूर्ण क्षण है ...

एक प्रतिबद्ध लेखिका 'मुकम्मल' व्यक्तित्व आदरणीय चित्रा मुद्गल दीदी की बहुमूल्य टिप्पणी (शीर्षक पर पहले आशीर्वचन उन्हीं के मिले ---वर्तमान समकाल की अर्थवत्ता की चौखटें खोलता शीर्षक) --'समकाल के नेपथ्य में'

सम्माननीय मित्रों कल एक फोन कॉल ने जीवन के महत्वपूर्ण दिनों में अपनी उपस्थिति दर्ज की | एक प्रतिबद्ध लेखिका 'मुकम्मल' व्यक्तित्व आदरणीय चित्रा मुद्गल दीदी से कल अपनी पहली किताब पर चर्चा के साथ यह संदेश भी प्राप्त हुआ | फोन पर, गहरी आत्मीयता में डूबी पर्याप्त ठहराव लिए उनकी आवाज तमाम विराम चिन्हों को साधते हुए खुद -ब -खुद अपनी राह बना मुझ तक पहुंच रही थी और मैं स्तब्ध थी, फोन रखते हुए भी | किताब पर वार्ता का एक -एक शब्द कृति के भाग्य से जुड़ा | अपनी पहली किताब को उनका प्रतिसाद मिलेगा सोचा न था मेरा यह सौभाग्य कृति के हिस्से में आया | 'समकाल के नेपथ्य में' पर पत्र शैली में उनके कीमती शब्द (उनकी अस्वस्थता के बावजूद )किसी धरोहर के रूप में सहेजे 



 

समकाल के नेपथ्य की समीक्षा --
-समावर्तन मासिक के मार्च 2022 के अंक में /समीक्षक--डॉ.पिलकेंद्र  अरोरा 





 

दैनिक स्वदेश में प्रति रविवार स्तंभ का लेख