Thursday, October 19, 2023

 कागज पर  शब्द महज भाषा का खेल या लिपि की चित्रकारी नहीं बल्कि अर्थ छवि की चित्रात्मकता होते हैं। वरना तो ज्ञान का कुबेर खजाना व्हाट्सएप और फेसबुक पर कोई कम नहीं फैला हुआ है। 

समकाल के नेपथ्य में (निबंध संग्रह )विमर्श अब भी जारी है 

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 मित्रो,दिल्ली साहित्य अकादमी  की महत्वपूर्ण  पत्रिका (द्वैमासिक )'समकालीन भारतीय साहित्य में' निबंध संग्रह 'समकाल के नेपथ्य में' पर महत्वपूर्ण कथाकार इस दौर के तटस्थ आलोचक आदरणीय भालचंद्र जोशी सर की विस्तृत समीक्षा प्रकाशित होने का  सुख मेरे हिस्से में आया अकादमी के नये अंक में समीक्षा प्रकाशित हुई है | 

जिसकी ताज़ा तस्वीरें कृति की भूमिका लेखक और  महत्वपूर्ण समालोचक आदरणीय बी एल आच्छा  सर ने भेजी है | 

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 मित्रों मैंने सोचा नहीं था  अपने निबंध संग्रह को साहित्य के जगत के सशक्त हस्ताक्षरों की बेशकीमती टिप्पणियों और पुनरवलोकन करती विस्तृत समीक्षाओं का प्रतिसाद इस रूप में मिलेगा कि इस संग्रह पर एक विमर्श केंद्रित कृति प्रकाशित हो सकेगी |  कृति की यह सार्थकता मेरे हिस्से भी आयी अब तक इस कृति पर केंद्रित समीक्षाएं कई महत्वपूर्ण पत्र -पत्रिकाओं का हिस्सा बन चुकी है., और आज समकालीन भारतीय साहित्य पत्रिका के साथ यह सिलसिला दो वर्ष बाद भी जारी है मसलन :आउट लुक, मधुमती ,अक्षरा, समावर्तन, वीणा ,शिवना साहित्यिकी ,आदि आदि पत्रिकाओं में पूर्व में आ चुकी हैं (समीक्षक टिप्पणीकार:  चित्रा मुद्गल जी ,नर्मदा प्रसाद उपाध्याय जी ,प्रकाशकांत जी,डॉ जय कुमार जलज जी , डॉ मुरलीधर चाँदनीवाला जी ,भालचंद जोशी जी ,डॉ पिल्केंद्र अरोरा जी, डॉ मीनाक्षी जोशी जी ,डॉ विकास दवे जी ,डॉ पद्मावती जी ,डॉ पुष्पेंद्र दुबे जी, सूर्यकान्त नागर जी ,अनिल जैन जी ,समीक्षा तैलंग जी ,प्रो.अमिता मिश्रा जी ,संतोष सुपेकर जी ,डॉ निधि अग्रवाल जी , सत्या शर्मा ' कीर्ति 'जी ,प्रभु त्रिवेदी जी ,अनघा जोगलेकर जी अपराजिता शिंदे जी आदि )

दो वर्ष पहले आये इस संग्रह के इस  सम्मान हेतु आप सभी के प्रति बहुत आभार व्यक्त करती हूँ | यह सिलसिला सिर्फ और सिर्फ आप सभी फेसबुक मित्रो  की बदौलत है मेरे पास  अपने  फेसबुक मित्रो  का ऐसा बहुमूल्य मंच  है कि बिना कोई अतिरिक्त प्रयास के यहीं से बेहतरीन लेखकों को पढ़ने  उनको समझने  का अवसर मिला और यही   से मुझे बेशकीमती पाठक मिले जिनकी बदौलत समीक्षाओं का संकलन आ सका | 

सादर आभार सहित संग्रह पर  केंद्रित समीक्षाओं का संकलन भावना प्रकाशन, नई दिल्ली से प्रज्ञा  अग्रवाल के संपादन में (संस्थापक अग्रवाल एजुकेशन अकादमी )आपके  समक्ष होगा | 

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कुछ अंश --

समय के बदलाव की व्यग्रता के निबंध

--भालचंद्र जोशी

जहाँ तीज- त्यौहार पर मोहल्ले गली और आसपास के पूरे वातावरण में उल्लास चारों और झलक पढ़ता था, जहाँ सांस्कृतिक या पौराणिक रूप से बल्कि कलात्मक और सर्जनात्मक रूप से भी मन की अनुभूतियों को अभिव्यक्त होने का अवसर मिलता था' ( वही- पृष्ठ- वही)इन उपलब्धियों और वैभव को नष्ट करने वाले अपराधी को वह तत्काल पकड़ भी लेती हैं, ' आधुनिकता के नाम पर यह उत्सवधर्मिता अब से सिमटती जा रही है।'(वही-पृष्ठ-वही) इस भाव प्रवण विश्लेषण में निराकरण के बेहद करीब पहुँच जाने के उपरांत किंचित अदेखी यह हो जाती है कि इस भूमंडलीकरणोत्तर समय में बाजार ही पूँजी की ललक में यह सारी लीला रच रहा है वरना हम दो सौ साल अंग्रेजों के गुलाम रहे और पाश्चात्य संस्कृति तो तब भी थी लेकिन पाश्चात्य संस्कृति और आधुनिकता के ऐसे डरावने दृश्य सामने नहीं आए थे। लेकिन इसमें कोई संदेह नहीं कि वे बदलते समय की गति में संस्कृति और परंपरा को को बहुत उत्सुकता और तल्लीनता से देख रही हैं। इसलिए यह बात उनके लिए स्पष्ट है कि,  'हम अपनी परंपराओं को जानने समझने का कार्य करते हैं, हमारा युगबोध सुदृढ़ होता चला जाता है।'( वही-पृष्ठ-50)

इस पुस्तक में विविध विषयों पर लेख हैं। इतने विविध विषयों पर लिखने का साहस जुटाना कोई सामान्य बात नहीं है। इन निबंधों को पढ़कर यह तो काफी हद तक स्पष्ट हो जाता है कि शोभा जीवन और समाज के सच को जानने समझने की गंभीर कोशिश में संलग्न है। निजी और अनुभूतिगत स्तर पर समझने की प्रक्रिया में अपने विश्लेषणों को इस तरह से अभिव्यक्त करती हैं कि वह किसी पूर्व सिद्ध धारणा की प्रतिलिपि न लगे। साथ ही निबंध में विषय के फैलाव में अंतर्निहित यथार्थ की अनुभूति को भाषा के कौशल में जाकर अर्थ निरपेक्ष होने से भी बचाती हैं। इसलिए कागज पर  शब्द महज भाषा का खेल या लिपि की चित्रकारी नहीं बल्कि अर्थ छवि की चित्रात्मकता होते हैं। वरना तो ज्ञान का कुबेर खजाना व्हाट्सएप और फेसबुक पर कोई कम नहीं फैला हुआ है। इस तरह के साहित्य या ज्ञान की निरर्थकता और खतरे की ओर भी शोभा संकेत करती हैं,

(मधुमती, अंक अप्रैल 2022)

 समकाल के नेपथ्य में (निबंध संग्रह )पर मेरा मनोगत 


 मनोगत



वैसे तो हरेक सामाजिक घटना में हमारी दृष्टि  और समझ को एक नयी  सतह पर ले जाने की क्षमता छिपी रहती है,पर जिंदगी का प्रवाह अक्सर यह मौका नहीं देता कि  हम इस क्षमता का पूरा लाभ उठा सकें | ज्यादातर घटनाएँ  अपने वक्त की जटिल ज्यामिति  को छिपाये ही हमारी याददाश्त की साप्ताहिक और मासिक हदें पार कर  जाती हैं | और हमें अपनी समझ और सम्वेदना  के पुराने धरातल पर छोड़ देती है | कुछ घटनाएं ही हमें धक्का देते हुए इस बात की संभावनाएं पैदा  कर  देती है कि हम विवश होकर बिना किसी पशोपेश के उन्हें जीवन की किसी भी विधा में  उकेर दें | यही मेरे मानस के साथ भी हुआ इसलिए मेरा शुरू से विश्वास रहा लेखन कभी भी शौक से नहीं विवशता से जन्मता है | अनवरत सोद्देश्यता और जवाबदेही के कठोर साँचों  में छुटपन से ही बंध जाना लड़कियों को समाज में स्वीकृत यानी पूरी तरह भूमिकाबद्ध जीवन जीने का पूर्वाभ्यास भी कराता है | यही मेरे लिए भी सुनिश्चित हुआ |लड़कियों के लिए  इस पूर्वाभ्यास में जरा सा भी चूक जाना किसी अपराध की तरह माना जाता है यह भी जीवन के साथ जुड़ा और  यह एक  बंध  से एक बांध कब बनता चला गया पता नहीं चला |इस तरह   जीवन और लेखन दोनों के मध्य का  स्वप्न सेतु बनता चला गया | यह भी कि  हमारे लिए विधा  चयन हमारी भीतरी प्रकृति करती है | विचार के क्षणों में मेरे मानस में गद्य ही आकार लेता है | यह इसलिए भी कि उसमें अपनी अनुभूति  के साथ बाह्य विश्लेषण के लिए भी पर्याप्त अवकाश मिलता है | पहला निबंध एक लेख के रूप में कक्षा छटवीं में लिखा था जब जीवन की वास्तविकता से बहुत दूर थी | स्वभाव से अन्याय विरोधी ही नहीं असहिष्णु हूँ जीवन में इस स्वभाव के बड़े परिणाम भुगते हैं जो स्वाभाविक है इसलिए सुधि पाठकों को इन आलेखों में  कहीं -कहीं उग्रता की गंध भी महसूस हो सकती है  | बावजूद इसके नि बंध के इन मुक्त विषयों से गुजरना हर बार मेरे लिए किसी परीक्षा में बैठने जैसा ही अनुभव है | जैसे जीवन में निभाई विविध भूमिकाएं हमें जीवन में अग्रसर होने का संकेत देती है ठीक वैसे ही  यह भूमिका भी कुछ चिन्ह जरूर अंकित करती है| कैसे एक शब्द शीर्षक बनकर फूट पड़ता है | यह सब अचानक से नहीं होता शब्दों के नेपथ्य में हमारे समकाल की सुगबुगाहट बनी रहती है हर समकाल का एक नेपथ्य होता है  | उसके बाहर आने की छटपटाहट ही खाली कागजों का जीवन भर देती है | 


प्रकृति ने मेरा चयन मूलतः गद्य के लिए किया| अध्ययन में मेरा  आकर्षण  आलोचना/समीक्षा की ओर ही रहा |इन्हीं विधाओं के सांचे में ढलता कच्चा अनुभव और जीवन कितनी घटनाओं का साक्षी बना  |लेकिन वे ही  घटनाएँ हमें लिखने के लिए प्रेरित करती हैं जो हमारी भावनाओं ,मूल्यों  और मान्यताओं को स्वर देती हैं |निजता से परे जाकर जन समाज के व्यापक संदर्भ जब इनसे जुड़ते हैं तभी लेखन अर्थवान लगता है |अध्ययन की जिस प्रक्रिया से अथवा विधा से हम बार बार गुजरते हैं उसे स्वभावतः आत्मसात करने लगते है मेरा लेखन ‘परि’ स्थितियों के साथ इसी परिवेश से प्रेरित है | किसी घटना अथवा परिस्थिति को कईं  एंगल से देखने की आदत है ।कईं बार उसकी पैरवी करते हुए पक्ष में | कभी अपने ही विचारों को अस्वीकृति के कटघरे में पाया | विचारों के इसी 'कच्चेपन' के बावजूद  खाली डायरियों  के जीवन को भरा | अब वो कच्चापन बाहर झांकने लगा हैं साहित्यिक पत्र -पत्रिकाओं में प्रकाशन के साथ सामयिक विमर्श और बहसों का हिस्सा  बना तो  लगा कच्चेपन में भी स्वाद होता है |


डॉ शोभा जैन 

दैनिक स्वदेश में प्रति रविवार स्तंभ का लेख