Wednesday, April 24, 2024

स्वदेश में प्रति रविवार स्तंभ 
इस सप्ताह का लेख 
हम चाहते हैं हमारा वर्चस्व कायम रहे  

21/04/2024

हम जिस समय में हैं हमारा जीवन तनाव, उथल-पुथल और विकारों से भरा हो गया है| जीवन पहले से अधिक जटिल रूप से अन्योन्याश्रित हो गया है। यद्यपि हम बाह्य रूप से विश्व-शांति और अहिंसा की वकालत कर रहे हैं, फिर भी हम युद्ध की तैयारी कर रहे हैं। यह आधुनिक समय का संकट है कि हम शांति की आकांक्षा तो करते हैं लेकिन मानवजाति के भीषण जनाजे की तैयारी करते हैं। अंततः कोई भी समाधान भ्रम और पूर्वाग्रहों से मुक्त ज्ञान के माध्यम से ही प्राप्त किया जा सकता है।
 आज दो लोगों के बीच मतभेद विचारों की वजह से होते हैं |अपनी बात को सही और दूसरों की बात को गलत मानने के कारण ही समस्याएं उत्पन्न होती हैं। यह साम्राज्यवाद और विचारों में आक्रामकता है जब कोई पक्ष या दूसरा स्वयं को पूर्ण सत्य का एकमात्र स्वामी समझता है, तो यह स्वाभाविक हो जाता है कि दूसरा या तो अपराधी की तरह  असत्य है या  गलत | ऐसी  अलगाववादी प्रवृत्तियों के कारण हर कोई स्वयं को असुरक्षित महसूस करता है। अनेकांत दृष्टि सभी के हितों का चिंतन करता है वह वर्चस्ववाद का विरोधी है |   



 

 किताबें अपरिचय  तोड़ती हैं’
पत्रिका समाचार पत्र में घर के पुस्तकालय पर बात 



 

https://youtu.be/-DftE13thYA?si=gYfmIqfja_fEmAog

Saturday, April 20, 2024

समालोचन--  ''वे रचना या रचनाकार के साथ कोई मुलाहिज़ा  नहीं पालते'
----

यह पहला अवसर है जब ९५१ (951 )पृष्ठों के किसी कृतित्व केंद्रित   विशेषांक (शोधपरक) का हिस्सा बनी | 
अंक के कुल जमा ११ अध्याय  में से अध्याय चार -- 'समालोचन' के अंतर्गत   साहित्य, पत्रकारिता जगत के महत्वपूर्ण नामों (लीलाधर मंडलोई जी,प्रियदर्शन जी, विष्णु नागर  जी,प्रकाशकांत जी ,आदि) जिन्हें मैं पढ़ती रहीं हूँ  में अपना नाम देखना आश्चर्य से भर गया|  
विशेषांक में मेरा समालोचकीय लेख १२ पृष्ठों का है जिसका शीर्षक है --- ''वे रचना या रचनाकार के साथ कोई मुलाहिज़ा  नहीं पालते'
सापेक्ष पत्रिका का अशोक वाजपेयी विशेषांक कल घर पर पहुंचा | सेतु प्रकाशन से प्रकाशित इस विशेषांक का संपादक :महावीर अग्रवाल जी ने किया है यह लेख लिखवाने का श्रेय भी उन्ही को जाता है |  लगभग एक वर्ष पूर्व उन्होंने दिल्ली साहित्य अकादेमी  की पत्रिका -समकालीन भारतीय साहित्य ' में मेरी विस्तृत समीक्षा पढ़ी थी | पत्रिका में दिये नंबर से   मुझे फोन किया |  उस समय इस विशेषांक की तैयारी चल रही थी  | १२ पृ लिखने के लिए मैंने कुछ माह का समय मांगा जो मुझे मिला भी | अब प्रकाशितलेख आपके समक्ष है | 
समग्र अंक पर विस्तार से लिखूंगी 
फ़िलहाल इतना ही कि इसमें आप साहित्य की  लगभग हर विधा से गुजर सकेंगे | अंक में धर्मवीरभारती ,भारत भूषण अग्रवाल , केदारनाथ सिंह    नरेश मेहता ,कुंवर नारायण ,ज्ञानरंजन धूमिल के महत्वपूर्ण पत्र सम्मिलित हैं  तो विष्णु खरे ,कृष्णा सोबती ,विनोद शाही आदि के  साक्षात्कार भी |व्यक्तित्व केंद्रित शीर्षक से बुने  अध्याय में  ध्रुव शुक्ल ,प्रयाग शुक्ल,सुबोध सरकार , अयप्पा पणिक्कर  आदि कई महत्वपूर्ण नाम हैं जिनकी  अनुभवसम्पन्न दृष्टि से अंक बहुत समृद्ध हुआ   |




















 

शुद्ध हिंदी में धाराप्रवाह बोलना, विषय को समझना  और विषय से सम्बद्ध बने रहने का हुनर है युवा होती पीढ़ी में   
इस  समृद्ध अनुभव के लिए बहुत  आभार  डेली कॉलेज, इंदौर 
संदर्भ --पद्मश्री जगन्‍नाथ कृष्‍णा काटे स्मृति अखिल भारतीय हिंदी वाद-विवाद प्रतियोगिता
---------------------------
मित्रों, विगत बुधवार पद्मश्री जे.के.काटे  स्मृति अखिल भारतीय हिंदी वाद-विवाद प्रतियोगिता डेली कॉलेज ,इंदौर द्वारा आयोजित की गई | 
(शिक्षाविद -जगन्‍नाथ कृष्‍णा काटे |  शिक्षा के क्षेत्र में उनके योगदान के लिए 1972 में उन्हें पद्मश्री से सम्मानित किया गया)
वाद -विवाद के पक्ष -विपक्ष के पहले और  दूसरे चरण में 'अंकीय' निर्णायक की भूमिका मेरे लिए  बड़ी चुनौती भरी रही |
हर पक्ष में  कोई नया तथ्य था|  आत्मविश्वासी कहन  और विषय संरचना में समग्रता   | मेरे साथ अंकीय निर्णायक की भूमिका में वरिष्ठ पत्रकार (पीटीआई से ) हर्षवर्धनप्रकाश   जी रहे | 
विषय रहे --1 --यह सदन मानता है कि कृतिम बुद्धिमत्ता (एआई )वरदान नहीं अभिशाप है 
2 --- नारी सशक्तिकरण के लिए आर्थिक सशक्तिकरण  सबसे ज्यादा जरुरी 
देश  के विविध प्रांतों  से आये  प्रतिष्ठित विद्यालयों के  प्रतिनिधित्वकर्ता की भूमिका  में सभी  उत्कृष्ट प्रतिभागियों की  वाक्पटुता ने बहुत प्रभावित किया | 
मानव-भविष्य को अकल्पनीय तरीकों से आकार देने वाले कृत्रिम बुद्धिमत्ता 
(AI ) से मानवता का अस्तित्व कितने खतरे में  है ,इसकी अच्छी और बुरी संभावनाओं पर युवा मन की यह  बहस बहुत जरुरी लगी | इस विषय के माध्यम से ही सही संभावित जोखिमों और चुनौतियों पर सोचने की नई दृष्टि विस्तार ले सकेगी | 
विशुद्ध अंग्रेजी माध्यम के विद्यार्थियों का शुद्ध हिंदी में धाराप्रवाह बोलना, विषय को समझना  और विषय से सम्बद्ध होकर सवाल- जवाब रखना आने वाले समय के लिए गहरी आश्वस्ति देता है | 
हमारी कुछ पूर्व निर्धारित धारणाएं बनी हुई हैं  पीढ़ियों के भाषा दायित्व  को लेकर आमतौर पर लगता है वे सजग नहीं है |
 लेकिन इस प्रतियोगिता ने इस बात की ओर ध्यान आकर्षित किया कि पीढ़ियों को सही निदेशन  की दरकार है | अंग्रेजी माध्यम के बच्चे हिंदी में (शुद्ध हिंदी में )सम -सामयिक विषयों पर बात रखते हैं तो कुछ पुरानी धारणाएं टूटती हैं तो कुछ जुड़ती भी हैं | समय अनुशासन की प्रतिबद्धता  के साथ संपन्न दोनों चरण इंदौर शहर के  प्रतिष्ठित शिक्षण संस्थान की पारदर्शिता का भी गहरा  अनुभव दे गये | 






 



Wednesday, March 20, 2024

महिला सशक्तिकरण 


 


साहित्य में आलोचना की स्थिति 

 

साहित्य में कविता की स्थिति 


 

साहित्य में कविता की स्थिति 

 

साहित्य में समकालीनता 

 

मंच पर चढ़ते -उतरते 'अतिथियों' सा नहीं धरातल पर एक साथ समान रूप से बिछे हरसिंगार सा 
आखिर सम्मान के उपलक्ष में रखे आयोजनों से हमें चाहिए क्या होता है ?
-------------------
सम्माननीय मित्रों इस महिला दिवस पर एक कोना खंडित होने से बच गया शायद इसलिए कि विवेक की कोई ऐसी जमीन थी जहाँ छोटी -मोटी परस्पर असहमतियों के बावजूद विषय -सत्व को बचाये रखना मूल में था |
साधन के रूप में धन की महत्ता किसी भी युग में कम नहीं रही ,लेकिन ,हमारे समय में उसने 'विचार' का दर्जा हासिल कर लिया है | शायद इसलिए अब आयोजनों में धन वैभव की भव्यता बोलती हैं मंच अक्सर विचार शून्य नजर आता है | बावजूद इसके मंच पर लगभग ‘आधा दर्जन’( इस शब्द का प्रयोग करना विवशता लगी ) अतिथियों का अलग -अलग भूमिकाओं में होना मीडिया कवरेज के लिए जरूर सुलभ साधन हो सकता है लेकिन उसका विषय वस्तु से अंतरंग न हो पाना 'अक्सर' उसकी नियति बन जाती है|
निमंत्रण पत्र (आमंत्रण नहीं )के साथ बिना किसी औपचारिकता के आत्मीय संवाद करना तो हम सभी चाहते हैं क्योकि भीतर से सभी भरे हैं | हर कोई चाहता है कि कोई उसे सुने | इन दिनों जहाँ हम भूल ही चुकें हैं कि ‘’भाषण विहीन’’ आयोजनों का सत्व क्या हो सकता है| कितने परस्पर आत्मीय सम्वादों से हम दूर जा चुके हैं| मंच पर अलग -अलग भूमिकाओं को वहन करने वाले भी नहीं जानते कि उनकी भूमिकाएं विषयों पर कितना खरा उतर सकी | मंच से उतरते ही 'अक्सर' अतिथि, मुख्य अतिथि, अध्यक्ष की ‘’विचार भूमिकाएं’’ भी उतर जाती हैं | ऐसे में इंदौर शहर की प्रतिष्ठित सेवा सुरभि संस्था का अनूठा नवाचार अनुकरणीय हैं जिसे किसी सम्माननीय मिलन उत्सव की तरह सहेजा गया उत्सव में शामिल हर किसी ने लगभग 2-3 मिनट में अपने मन की, अपने समय की अनुभव की बात कही | वाकई कुछ आयोजनों में अनुशासन के कुछ प्रतिबंध अब समय की जरूरत लगते हैं | ऐसे ही कुछ समय के बंध और किसी भी भूमिका के बंधन से मुक्त आयोजन में सहभागी होना नवाचार को विस्तार ही देता है |हमें अब आयोजनों की परिपाटी पर भी विचार करने की जुरूरत है ''सेवा सुरभि'' का यह नवाचार अधिक विस्तार पाये |आयोजनों के लिए कुछ अनुशासन कुछ प्रतिबंध चाहे समय के हो अतिथियों के या फिर आमंत्रित किये जाने वाले पाठक श्रोताओं के कुछ बदलाव तो जरुरी है |
 सूत्रधार की केंद्रीय भूमिका निश्चित ही आयोजन के इस पूरे अनुशासन को साधने का दायित्व निभाती हैं यहाँ भी संजय पटेल भाई साहब के प्रबंधन की जितनी प्रशंसा की जाये कम है | 
इन तस्वीरों में कुछ महत्वपूर्ण सहृदय चेहरे छूटे हुए हैं जो वहां थोड़े समय के लिए ही सही मौजूद रहें आयोजन के आखरी चरण तक न रुक सके |



 



महिला सशक्तिकरण चुनौतियां और संभावनाए 
अंतराष्ट्रीय महिला दिवस 2024 








 

https://lnkd.in/dV3P32Wj

15 मार्च शुक्रवार रात्रि 9 बजे देवशील मेमोरियल के फ़ेसबुक पेज पर 'एक मुलाक़ात’ कार्यक्रम में मिलते हैं सुप्रसिद्ध साहित्यकार डॉ.शोभा जैन जी से।
संचालन सुप्रसिद्ध ग़ज़लकारा प्रिय Sonia Aks Sonam का।


 

Wednesday, February 14, 2024

 जबकि प्रेम को उपहास के कटघरे में खड़ा कर चुके हैं








हम प्रेम में फोटो वायरल करने के युग में हैं | चेहरे पर एसिड फेंकने वाले युग में हैं |
आखिर प्रेम हत्याओं में तब्दील कैसे हो जाता है ?जात छुपाकर प्रेम नहीं किया जाता | दिल नहीं जीता जा सकता किसी का | ब्लैकमेल नहीं किया जाता प्रेम पाने के लिए| धमकियों भरे एसिड से चेहरा नहीं बिगाड़ा जा सकता प्रेम में | इकतरफा 'प्रेम' भी कभी मुजरिम नहीं बनाता |
ब्रेक अप शब्द प्रेम के स्वभाव में जगह बना चुका है | वह निजता में बहुत जल्दी दाखिल होना चाहता है|
पर्दे हटते हैं और हम प्रक्रियाओं को घटते देखते हैं. प्रक्रियाएं जो वर्चस्व के संसार का प्रतिलोम हैं.|कभी -कभी प्रेम वर्चस्व पर आकर सिमट जाता है और वर्तमान का एक विचार घिसकर किसी औजार की तरह भविष्य में धारदार हो जाता |
आज हिन्दुस्तान मेल में प्रकाशित
----------------------------
स्त्री-पुरुष के सहजीवन में प्रेम की भूमिका कितनी केंद्रीय हो सकती है | देह के समीकरण में जोड़ घटाव करते हुए प्रेम अब दिन और रात के शेड्यूल की तरह बदलता है | वह निजता में बहुत जल्दी दाखिल होना चाहता है बादलों की तरह एक उतावलापन हावी रहता है | कपूर की खुशबुओं सी महकती ऋतुएं आती हैं लौट जाती हैं लेकिन प्रेम की ऋतु जब आती है लौटती नहीं, ठहर जाती है उसका अपना एक संगीत है जो अंतरंग बजता है| हर आयु की अपनी एक अलग धुन किसी के लिए प्यानों में किसी के लिए गिटार वाली कोई रॉक स्टारवाली | हर वर्ष प्रेम दिवस मनाने वाली पीढ़ी प्रेम को उपहास के कटघरे में खड़ा कर चुकी है ब्रेक अप शब्द प्रेम के स्वभाव में जगह बना चुका है | आधुनिक प्रेमियों का प्रेम चैट के साथ शुरू होता है चैट डिलीट करके खत्म हो जाता है | एक प्रेम में भी कितने पहर होते हैं, हर पहर का एक अलग संवाद हर संवाद में कितने क्षण | दुनिया में बहुत खाली जगह है हम चुप रहकर भी उन्हें भर सकते हैं बशर्ते हम खुद भीतर से खाली हैं शायद तभी खाली होने के रीतेपन को समझ सकें | जाना वहां जहाँ से लौट पाना सम्भव न हो |लौटने पर बहुत कुछ छूट जाता है साथ दुख चलते हैं |
पर्दे हटते हैं और हम प्रक्रियाओं को घटते देखते हैं. प्रक्रियाएं जो वर्चस्व के संसार का प्रतिलोम हैं.|कभी -कभी प्रेम वर्चस्व पर आकर सिमट जाता है और वर्तमान का एक विचार घिसकर किसी औजार की तरह भविष्य में धारदार हो जाता | कितनी घटनाएं होती है प्रेम के चलते प्रेम अपने आप में एक घटना है |
हमें नहीं पता कौन सा आंसू किस दुख का अंततः प्रतीक्षा प्रेम का सबसे सुखद क्षण है | प्रेम में निर्मम हुआ जा सकता है सिर्फ अपने साथ |
पर्दे हटते हैं और हम प्रक्रियाओं को घटते देखते हैं. प्रक्रियाएं जो वर्चस्व के संसार का प्रतिलोम हैं.|कभी -कभी प्रेम वर्चस्व पर आकर सिमट जाता है और वर्तमान का एक विचार घिसकर किसी औजार की तरह भविष्य में धारदार हो जाता | कितनी घटनाएं होती है प्रेम के चलते प्रेम अपने आप में एक घटना है |
शुक्रिया कीर्ति राणा जी

Thursday, January 18, 2024

समालोचना  स्तंभ' के तहत नई धारा में मेरे निबंध संग्रह 'समकाल के नेपथ्य मेंपर विस्तृत समीक्षा नर्मदा प्रसाद उपाध्याय जी द्वारा  लिखित 






समालोचना  स्तंभ' के तहत मेरे निबंध संग्रह 'समकाल के नेपथ्य में' पर   नर्मदा प्रसाद उपाध्याय जी द्वारा  लिखित  महत्वपूर्ण  समालोचना नये वर्ष  में 'नई धारा' पत्रिका का हिस्सा बनी| 
 साहित्यिक पत्रकारिता के शीर्ष पर विराजित 'नई धारा' का प्रकाशन अप्रैल 1950 से आरंभ हुआ अब तक निरंतर है ।अपने समय और विरासत से संवाद की महत्वपूर्ण पत्रिका में  प्रकाशित समालोचना  आप सभी के अवलोकनार्थ सादर 
आभार नई धारा समूह 
मूलपाठ कुछ अंश 
समकाल के नेपथ्य: एक उज्जवल भोर-
शोभा के द्वारा रचे गए ये निबंध जिनमें अनेक आलेख भी शामिल हैं इस तथ्य की गवाही देते हैं कि किसी पहले राहगीर ने बड़े विश्वास और साहस के साथ इस पथ पर अपने पांव आगे बढ़ाए हैं। ‘समकाल के नेपथ्य’ में जो निबंध और आलेख सम्मिलित हैं वे इस तथ्य के साक्षी हैं कि एक सजग रचनाकार ने अपने युग के स्पंदनों को सुना है और फिर इन स्पंदनों को उन्होंने शब्दरूप में परिणत कर सम्प्रेषणीय ढंग से लोक के समक्ष प्रस्तुत कर दिया है। 
प्रस्तुत कर दिया है। 
 प्रख्यात चिंतक, व्यंग्यकार और समीक्षक प्रो. बी.एल. आच्छा ने यह बहुत सच लिखा है कि हमें सिद्धि तभी मिलती है जब अतीत का नवनीत मार्गदर्शी हो तथा विचारधाराएं जीवनप्रवाह की सततता को नवोन्मेषी बनाती हों और डॉ. शोभा जैन के इस वैचारिक अनुष्ठान में यही जीवनदृष्टि है, जो न तो अतीत-राग और न विचारधाराओं के संकरीले प्रवाह से बंधी है बल्कि वे समकाल के नेपथ्य में मुखर प्रतिध्वनियों को हाशिए से निकालकर मुखपृष्ठ पर लाती हैं। उनका यह कहना भी अपने स्थान पर बड़ा सटीक है कि इस संकलन के निबंधों का खुला आकाश हमारे सोच का अनेकांत है। 
 डॉ. शोभा जैन ने अपनी कृति के संबंध में विस्तार से अपनी स्थिति स्पष्ट करते हुए अपने दृष्टि को प्रस्तुत किया है। अपने लेखन प्रक्रिया के संबंध में उन्होंने लिखा है कि सब कुछ अचानक नहीं होता। शब्दों के नेपथ्य में हमारे समकाल की सुगबुगाहट बनी रहती है। हर समकाल का एक नेपथ्य होता है। उसके बाहर आने की छटपटाहट ही खाली क़ाग़ज़ों का जीवन भर देती है। वे यह भी मानती हैं कि प्रकृति ने उनका चयन मूलतः गद्य के लिए ही किया है। इस संग्रह में कुल 55 आलेख और निबंध सम्मिलित हैं जिनके बारे में बड़े विस्तार से चर्चा की जा सकती है किंतु इन निबंधों के विषय बड़े मौलिक हैं तथा लेखिका की दृष्टिसम्पन्नता और अपने युग के प्रति अपनी प्रतिबद्धता की ओर इंगित करते हैं। उनकी दृष्टि का विस्तार अपरिमित है। इन निबंधों और आलेखों के विषय विविध हैं और वे अपने समय का तो प्रतिनिधित्व करते ही हैं अपने अतीत के संबंध में भी उसकी उज्जवलता और प्रखरता को हमारे समक्ष प्रस्तुत करते हैं। उनकी दृष्टि की व्यापकता का अनुमान इसी से किया जा सकता है कि पहले दो निबंध ही मनुष्यता का उद्घोष करते हैं और वे मनुष्यता के जीवन मूल्यों को परिभाषित करते हुए व्यक्ति के विश्व रूप में रुपांतरण की उद्घोषणा करते हैं। 
 इतिहास की सिद्धि और भविष्य से लेकर लोकतंत्र, साहित्यिक संदर्भ, उत्तर आधुनिकता, निराला और मुक्तिबोध तथा शब्दों से लेकर हिन्दी की वैश्विक स्थिति व कोरोना जैसी महामारी के विषय उनके लेखन की परिधि में आते हैं। वे बड़े सारगर्भित रूप में अपनी दृष्टि को प्रस्तुत करते हैं। उनके पहले निबंध ‘नयी विश्व व्यवस्था: मनुष्य से मानव की ओर, व्यक्ति से विश्व की ओर’ में वे कहती हैं, ‘धर्म, मानव की एक चिति है। चेतना जो संस्कृति का प्रथम सोपान है, जो उसे सभ्यता की ओर ले जाता है। समग्रतः जो हमें विकृतियों से बचाए वो धर्म है।’ इस संदर्भ में मुझे आचार्य तुलसी याद आते हैं जिनकी प्रख्यात कृति है ‘क्या धर्म बुद्धिगम्य है?’ और वे अपनी इस कृति में कहते हैं कि मनुष्यता धर्म का सार है, धर्म का आशय रुढ़ि नहीं है। वे कहते हैं कि धर्म के प्रचार के लिए सम्प्रदाय बने लेकिन कालांतर में सम्प्रदाय प्रमुख हो गए और धर्म गौण।
 इतिहास की सिद्धि को लेकर उनका यह कहना भी सच है कि इतिहास की जानकारी मनुष्य के भविष्य के निर्माण के लिए होना चाहिए और यह केवल संग्रहालयों की शोभा बढ़ाने वाला विषय नहीं अपितु सभ्यताओं और संस्कृति के पुनर्सृजन करने का भी विषय है। 
 उन्होंने लोकतंत्र और आज की राजनीति को लेकर भी अपने विचार व्यक्त किए हैं। वे प्रायः आलेखों के रूप में है जिनमें लोकतंत्र के संबंध में उन्होंने व्याख्या की है। 
 साहित्यिक विषयों पर उनके निबंध गूढ़ रूप में हैं तथा समकालीनता, समसामयिकता और आधुनिकता को लेकर उनमें विचारपरक सामग्री समाविष्ट की गई है। उन्होंने निराला और मुक्तिबोध की काव्य सामर्थ्य पर विचार किया है तथा यह सच लिखा है कि साहित्य को किसी साधना या तप की तरह जीने वाले संत साहित्यकार, साहित्य के प्रति वास्तविक आस्था और उसके आचरण के संस्कार को गति दें। शायद तभी कह सकेंगे कि साहित्य में कभी अवकाश नहीं होता। 
 दर्द और स्त्री को लेकर उन्होंने विस्तार से अपनी चिंताओं को मुखरित किया है तथा उन्होंने यह महत्वपूर्ण तथ्य रेखांकित किया है कि पुरुषवादी वर्चस्व की सत्ता स्त्री को हाशिए पर फेंकती है और वही सत्ता अपने समाज के भीतर और बाहर उपनिवेशीकरण के विविध रूप गढ़ती है। उन्होंने एक ज्वलंत विषय जो हमारे आम विमर्श का विषय है, को भी स्पष्ट किया है तथा ‘आधुनिकता बनाम परंपरा’ शीर्षक आलेख में हमारे आज के युगबोध और परंपराओं पर विचार करते हुए यह सटीक निष्कर्ष दिया है कि परंपराओं के अध्ययन ही नहीं पुनरावलोकन के आधार पर ही आधुनिकता के मानकों के ज़रिये युगबोध को मापना संभव है। वे साहित्य में मॉबलिंचिंग की भी चर्चा करती हैं और पुस्तकों के प्रकाशन को लेकर एक यथार्थपरक स्थिति भी निर्मित करती हैं। वे यह निष्कर्ष देती हैं कि दुष्यंत कुमार, नागार्जुन ने साहित्य की मॉबलिंचिंग को स्पर्श किया है। 
 ‘हिन्दी साहित्य समाज के हाशिए पर क्यों?’ इस निबंध में वे इस प्रश्न का उत्तर खोजती हैं। उनका मानना है कि नई पीढ़ी को इस प्रश्न का सार्थक उत्तर अपनी तपोनिष्ठ साधना के माध्यम से देना होगा। गांधी को लेकर भी वे अपनी दृष्टि से चर्चा करती हैं। उनका मानना है कि इच्छाओं की मृत्यु के साथ यदि ज़िन्दा रहने का सम्मोहन हम रख पाएं तो गांधी के मार्ग पर चला जा सकता है। वे किसानों की चर्चा करती हैं और उनकी यह चिंता है कि यदि किसानों की दशा और दिशा पर प्राथमिकता से विचार नहीं किया गया तो कृषक शब्द ही हमारे शब्दकोश से विलुप्त हो सकता है। एक आलेख में वे लोकतंत्र और बहुसंख्यकता के विभेद को स्पष्ट करती हैं और एक निबंध सियासत के ज़ख्म और उसके दर्द से कराहती दिल्ली पर है जिसमें दंगों के कारण दिल्ली की कारुणिक अवस्था को शब्दरूप में अभिव्यक्त किया गया है। 
 वे अंतिम आदमी तक लाभ पहुंचाने को लेकर भी अपने विचार व्यक्त करती हैं। उल्लेखनीय है कि पं. दीनदयाल उपाध्याय ने इस संबंध में एक विस्तृत अवधारणा भी प्रतिपादित की। वे अपने ढंग से कोरोना के लॉकडाउन के परिप्रेक्ष्य में विचार करते हुए कहती हैं कि सेवा का स्थान अधिकारों को सौंपकर तथा त्याग को भोगवृत्ति में धूमिल कर हमारे सत्व को जिस तड़क भड़क ने ग्रस लिया है यदि इस आवरण को मिटाया जा सका तो अंतिम आदमी का जीवन, वास्तव में जीने योग्य हो सकेगा। वे त्यौहारों को लेकर तथा उन अवसरों पर निकलने वाली झांकियों को लेकर उन्हें बनाने वाले कलाकारों की विपन्नता से भी व्यथित होती हैं। 
 राष्ट्रीय विमर्श की पक्षधरता, शब्द और भाषा तथा वैचारिक उदारता को लेकर भी वे बहुत मुखर हैं तथा इन विषयों पर उन्होंने जो लिखा है वह बड़ा सारगर्भित है। 
 डॉ. रामविलास शर्मा न केवल प्रख्यात आलोचक थे बल्कि अप्रतिम भाषाशास्त्री, संस्कृतिविद और कलाविद भी थे। उन्हें लेकर भी शोभा ने अच्छा विमर्श किया है। उनका यह कथन अपने स्थान पर बिल्कुल उचित है कि उन्होंने हिन्दी भाषा और हिन्दी साहित्य की अंतर्वस्तु पर ज़ोर दिया तथा एक भाषा वैज्ञानिक के रूप में उन्होंने हिन्दी भाषा के विविध पक्षों को उभारते हुए उसके अध्ययन के वृत्त को विस्तारित किया। वे स्तंत्रता, आत्मनिर्भर भारत में हिन्दी के भविष्य और कोरोना त्रासदी को लेकर भी अपनी चिंताएं जहां एक ओर व्यक्त करती हैं वहीं दूसरी ओर वे इस बात के लिए भी सशंकित हैं कि मनुष्य का अंतिम युद्ध प्रकृति से तो नहीं हो रहा है। अनेक विषयों की पुनरावृत्ति भी उनके द्वारा की गई है जो इन विषयों के प्रति उनकी गहन चिंता को इंगित करती है। 
 उनका एक सुंदर निबंध आंसुओं और पसीने के विभेद को लेकर भी है तथा इसके माध्यम से वे अपनी समकालीन परिस्थितियों और विसंगतियों को भी रेखांकित करती हैं। साहित्य की स्वतंत्रता, लोकतंत्र में व्यवस्था की मानवीय ईमानदारी से लेकर डिजिटल साक्षरता, महिला सुरक्षा तथा शिक्षक और शिक्षा नीति तक उनका वैचारिक संजाल विभिन्न निबंधों और आलेखों में फैलता दिखाई देता है। 
 एक प्रखर समाचार पत्र ‘अग्निधर्मा’ की संपादक होने के कारण उनकी सूक्ष्म दृष्टि अंतर्राष्ट्रीय राजनीति पर भी पड़ती है। वे अमृता प्रीतम से भी प्रभावित हैं और विभाजन की उन चुनौतियों को लेकर भी चिंतित हैं जो आज भी अशेष नहीं हुई हैं। हमारे आज के समय में हो रहे अपराधों को लेकर भी उन्होंने अपने विचार रखे हैं। आचार्य रजनीश की दृष्टि में क्या है प्रेम इसे लेकर भी उनका एक निबंध है। भाषा, धर्म, कॉरपोरेट जगत, अंग्रेज़ी की अपरिहार्यता और महामारी से उपजी विसंगतियों को लेकर भी उनकी चिंताएं मुखर हुई हैं। 
 समग्र रूप में डॉ. शोभा जैन के इन निबंधों में हमारे आज के युग की विसंगतियों को तो रेखांकित किया ही गया है अपनी ओर से समाधान भी सुझाए गए हैं। वे एक आशावादी सर्जक हैं इसलिए उनके लेखन में आशावाद के स्वरों का गुंजन निरंतर सुनाई देता है।
 इन निबंधों और आलेखों से गुज़रते हुए मुझे यह आश्वस्ति मिली है कि आज की नई पीढ़ी का सूरज भी अपने समूचे प्रभामंडल को लिए उदित हुआ है और शोभा जैसे रचनाकारों ने इस सूरज की रश्मियों को और रेशमी, और प्रखर तथा और दीप्तिमय स्वरूप देकर हमारे सर्जनात्मक जगत को एक उज्जवल और आशा से भरपूर, भोर की सौगात सौंपी है।
 मैं हृदय से इस भोर का अभिनंदन करता हूं। 
समीक्षक - नर्मदा प्रसाद उपाध्याय 
लेखक --डॉ शोभा जैन 
कृति --समकाल के नेपथ्य में 
प्रकाशक --भावना प्रकाशन नई दिल्ली



 


 मेरा लेख प्रजातंत्र में 

इन  आँखों ने देखे हैं, नए साल कई



कैलेंडर का एक पेज नष्ट होने के बाद  नया पेज खुलता है जिस पर नया महीना अंकित होता है। ये महीने मौसम की चाल के साथ कदमताल करते हुए प्रतीत होते हैं कील पर इन बदलावों का कोई असर नहीं पड़ता.| .कैलेंडर  बदलने से न तो भाग्य बदलता है न स्वभाव., दोनों उस कील की तरह हैं, जिस पर कैलेंडर के पेज फड़फड़ा जाते हैं।आँगन में जाड़े की बतियाती दोपहरें नसीब होती रहें शाम होते ही पंछी  अपने घोंसलों में  लौट सके  और क्या चाहिए  बेगानेपन के बरक्स एक नई प्रत्याशा|


                दुर्भाग्य से  बिलकुल फुटपाथ पर बैठने वाले ज्योतिषी की तरह हर कोई इन दिनों अपने आपको  भविष्यवेत्ता मान बैठा है राजनीतिक विश्लेषक या सामाजिक कार्यकर्ता, कुछ नहीं तो पत्रकार बनकर भविष्य को खबरों में समेटा जा रहा |   रेत की तरह फिसलते समय में न तो कोरोना किसी की हाथ की रेखाओं में दिखाई दिया, न वो सारे घोटाले जो बीते वर्ष की सुर्ख़ियों में थे | लेकिन गुजरे सभी इसी से| ऐसा ज्योतिषशास्त्र सम्भवतः पहली बार देखने में आया | सम्भवतः जनता भी अब मंथरा वाली उसी मानसिकता की शिकार हो गई है जिसका जिक्र कभी प्रभाष जोशी जी ने किया था  ''मंथरा दासी से रानी नहीं हो सकती थी चाहे जो राजा हो जाए इसलिए कौन राजा होता है और कौन नहीं इसकी उसे क्या फिकर होती?लेकिन लोकतंत्र में मंथरावाला रवैया रखना तो एकदम गलत है| 


पिछले कुछ वर्षों से देश का माहौल ऐसा बन गया है कि धर्मनिरपेक्षता और धर्माधता पर विचारों का टकराव एक नया तूफान खड़ा कर रहा है। सभा-गोष्ठियों, परिसंवायें में धर्मनिरपेक्षता की प्रक्रिया को उजागर करने के लिए हिंदी साहित्य पर छन्नी डाली जा रही है। छन्नी से छनकर जो तत्व निकल रहा है वह प्रमाण दे रहा है कि धर्मनिरपेक्षता एक ऐसा प्रत्यय है जिसे परिभाषित नहीं किया जा सकता। धर्म की सीमा कभी संकुचित हो जाती है कभी विस्तृत। इसमें ऐतिहासिक समय और मानवीय समय अलग-अलग अर्थ संदर्भ ग्रहण करता है और बनी-बनाई भावनाओं के साँचे टूटकर नए आकार ग्रहण कर लेते हैं।


जबकि जमीनी हकीकत है हमने घरों में झांका नहीं, न झांकना चाहते हैं खबरें केवल वही जिनका सीधा सरोकार पार्टी या दल से है भोगे जा रहे सच आज भी कलम में उतरने का साहस नहीं कर पा रहे | और हम कह रहे साल नया है| इस नए में बदलेगा क्या ?सुनवाई के लिए  कई अहम फैसलें फाइलों में कैद, अदालतें आज भी बंद है, चुनाव की रैलियों सभाओं को छूट, पुस्तकालय बंद, विद्यालय बंद, नौकरी से निकाले जा चुके तमाम निर्भर जिंदगियों का क्या जिसे राजनीतिक सुर्ख़ियों से कोई वास्ता नहीं, मंथरा की तरह सोच से जन्में आम आदमी के लिए राजा कोई भी हो,  ताज किसी के भी सर हो उन्हें जीवन की सुरक्षा चाहिए जो बदला हुआ साल दे सके |

बदलाव साल का हो या तारीखों का वास्तव में बदलता क्या है ? परिवर्तन की कुलबुलाती आकांक्षा में जीवन की कशमश और मनुष्य की पीड़ा भी प्रतिध्वनित होती है।हमारी तकलीफें और जिजीविषा इस बदलाव के साथ आगे बढ़ जाती अपना स्वरूप बदलती है।कभी-कभी कोई छूटा हुआ तीर दुखों को भेदते हुए निकल जाता है ।लेकिन समय की प्रत्यंचा पर वह अभेद्य ही बना रहा है।

दुनिया का हर व्यक्ति स्वतंत्रता को मनुष्य होने की पहली शर्त मानता आया है और सम्भवतः उसके हरण से अधिक त्रासद उसके लिए कुछ भी नहीं ।लेकिन क्या मनुष्य उस पत्थर की तरह हो सकता है जो चारों तरफ से नदी की धारा से घिरा है अकेला है फिर भी अपनी सत्ता में स्वतंत्र है।


                        देश के चारों ही स्तम्भ से बहुत अपेक्षाएँ हैं ज्वलंत विषयों को लेकर सुचिंतित विश्लेषण, एक समांतर सामाजिक हस्तक्षेप के साथ हम देख सकेंगे उम्मीद करते हैं क्योकि कोई भी अर्थपूर्ण  प्रक्रिया बिना विश्वएसनीयता के सम्भव नहीं| साल कोई भी हो नौकर का मालिक पर, जनता का सत्ता पर,विश्वास के भरोसे ही है | निजी आस्था ओं और उसकी सार्वजनिक निष्ठा ओं को साधे बिना विरोध की खाई नहीं भरी जा सकती फिर कितने ही उत्सव और जश्न मना लें |


पूरा मीडिया हर साल  समस्या से जूझता है   अखबारों और खबर चैनल के उम्मीदवारों और पार्टियों से काला धन लेकर विज्ञापनों और प्रचार सामग्री को खबर बना कर कैसे छापें  और प्रसारित करें जिससे यह काला धंधा गति पकड़े| चुनाव हो या  या कोई अप्रत्याशित घटना  उससे जन्मी बुनियादी समस्याएं, इस पूरी इबारत के बीच क्या था जो  न तो खुलकर लिखा गया न सामने लाया गया |संकट से गुजरने के जुमले जरूर दोहराए जाते हैं साल बदल जाता है  | सत्ता में कहीं कोई बैचेनी नहीं दिखती | कोरोना ने जीवन के कितने साल पीछे कर दिया हम उसे भूला चुके है जो खोया उसकी भरपाई आज भी न हुई है और हम उत्सवप्रिय भारत का एक वर्ग नए साल के जश्न में फिर डूबा | 



डॉ शोभा जैन, इंदौर


जानकीपुल में मेरी विस्तृत टिप्पणी-

https://www.jankipul.com/2024/01/a-review-of-sarang-upadhyaays-novel.html

मित्रों ,जानकीपुल में मेरी विस्तृत टिप्पणी--- भाषा के लिहाज से एक ख़ास उपन्यास ' सलाम बॉम्बे व्हाया वर्सोवा डोंगरी' 

गद्य की गहन ऐंद्रिकता में किसी इंटीमेट पेंटिंग की तरह इत्मीनान से भीतर  उतरता उपन्यास

यहाँ मूल पाठ के चंद  हिस्से बहुत विस्तार में पढ़ने के लिए लिंक पर क्लिक करें 


-------------------------------------------

जिस भाषा ने हिंदी फिल्मों की कामयाबी के सितार बांधे वह मुम्बइया बोली  साहित्य साधेगी इसका उदाहरण है सलाम बॉम्बे व्हाया वर्सोवा डोंगरी |

 उपन्यास के लेखक सारंग उपाध्याय ने कृति के शीर्षक में मराठी वर्तनी का प्रयोग कर प्रचलन की परंपरा का निर्वहन ही किया है (वाया के स्थान पर व्हाया )|उपन्यास में मौलिकता की ताजा लकीरें लेखक की सजगता की सूझ में डूबी हुई हैं | जो बूझ के लिए आँखें बंद कर बाचने का आग्रह करती है |

11  किस्सों में बटे  उपन्यास में भीड़ के आगोश में नींद की झपकियां लेती मुंबई है तो  बेचैनी में तर बतर चेहरों के अनकहे किस्से |  

इच्छाओं का अपहरण करती मुंबई में सपने पूरा करते -करते खुद सपना बन जाते लोगों की  जिंदगी की  बानगी  है सलाम बॉम्बे व्हाया वर्सोवा डोंगरी| लेखक ने महज़ मच्छी बाजारों की खाक नहीं छानी है बल्कि  इतिहास होते लोगों में डूबते  उतरते समय का नक्श तराशा है|ऐसा समय जो दस्तावेजों में कई-कई बार ढूंढने , जगहों पर ठहरने, हर तरफ देखने पर भी कोई खास निष्कर्ष नहीं दे पाता कुछ ऐसी जद्दोजहद  उपन्यास में दिखी | घटनाओं को जिस सलीके  से उपन्यास के कोने में करीने से सजाया  है  जैसे किसी घटना का आँखों देखा हाल बयां  किया जा रहा हो | मसलन :1992 का साल जा चुका था  और 1993 की फरवरी तक दंगों से झुलसी बंबई का दिल जितना छलनी हुआ ,उतना पहले कभी   नहीं '' यहाँ (पृ 82 )'हिन्दू -मुसलमान' की  लाशें कहने के बजाय महज़ इंसानियत लहूलुहान थी लिखना  ही ज्यादा मुनासिब होता | 

लेखकीय सोच के औजारों पर चमकती डोंगरी की दुनिया लाइम लाइट के घराने से घबराने वाले पिछली पक्ति में बैठे उन लोगों पर रोशनी डालती है जहाँ छोटे -छोटे अंतरालों में बहुत कुछ घट जाता है | शांत समंदर में पटरियों पर दौड़ती जिंदगी की कहानी जहाँ अजानें आर्दशों से टकराती है | मंदिरों की घण्टियों और चर्च की प्रार्थनाओं में मस्जिदों और नमाजों में डूबते लोगों की कहानियां बदल जाती है | मसलन :

दोनों को (जालना और  दत्ता) न  किसी बाबर नाम के आदमी का पता था और न यह पता था कि अयोध्या में कोई राम मंदिर है | जालना को बस इतना पता था कि एक मस्जिद  अचानक से 16 दिसंबर को ढह गई वह न कभी स्कूल  गया न जमीन  की दुनिया से उसे कोई लेना देना था न अख़बार, न सियासत उसके मोटे दिमाग में घुसते थे उसकी समझ में नहीं आ रहा था महज छोटी सी खबर ने पर पूरे  देश में यह हाहाकार क्यों मचा रखी थी ?''(पृ 73 ) 

इतिहास में दर्ज तारीखों पर निगाह डालते लेखक की आँखों में जैसे पूरा घटना क्रम तैरने लगता है  बैचैन होते मंजर  में कहीं काफ्का की कथाएं टकराती रहीं तो कहीं शाहबानों के फैंसलों पर तनाव झटकती दिल्ली, तो कहीं आरक्षण की आग में जलती सड़कों पर भगवान राम का  नारों  तब्दील हो जाना  सुनाई देता रहा |दरअसल न इतिहास की परतों में जिया  जा सकता है न भविष्य के यूटोपिया में विषयों को हाशिये से निकाल कर मुख पृष्ठ पर लाने की लेखकीय जवाबदेही से लेस  बेगुनाही की सजा काटते समय में  उपन्यास नये सिरे से जीने की निगाह खोजता है यही उपन्यास सार्थकता है

हँसते हुए जालना ने दत्ता से कहा  --''हम तो समुन्दर किनारे ही थे फिर नाव में नमाज पढ़ लेते हैं न भी पढ़ें तो कौन -सा अल्लाह केवल हमारी ही नमाज सुनने के लिए बैठता है'' जालना की बात सुन दत्ता ने कहा था, '' इन मौलानाओं ,मस्जिदों और पंडितों के चक्करों में न पड़ना जालना ., खुदा ही जानता है कि तूने कितनी नमाज पढ़ी है और मैंने कितनी पूजा पाठकी की है | ''(पृ 73 )

कथा के कुछ अधूरे सिरे  कई सवाल और मुबाहिसे हम तक छोड़ जाते हैं  मसलन : हिंदू लड़के से विवाह उपन्यास में कई दफा उभरा | जालना ने भी अरफाना को  चार निकाह पड़ने वाली बात कहकर मजहबी मुद्दे को सामने रखा जो अधिकारों के बरक्स ही सही विमर्श के द्वार खोलता है | लेखक ने इस विषय से बचते हुए कथा को मोड़ दिया | सायरा -रघु के मार्फ़त हमें हमारी स्थूल दुनिया के कामिल होने का संदेश भी सलोने ढंग से मिलता है़| गद्य की गहन ऐंद्रिकता में  किसी इंटीमेट पेंटिंग की तरह इत्मीनान से भीतर  उतरता उपन्यास जातिवाद के बैगेज के साथ आने वाली शुचिता की भोथरी अवधारणा को नापजोख करते हुए वजूद के बुनियादी सवालों से टकराता है़| 

उपन्यास में प्यार जैसी लगभग अपरिभाषेय भावना को ठीक-ठीक पकड़ने की कोशिश अनूठा, इंटेंस  लेकिन कुछ कोनों में बेहद उदास कर देने वाला गद्य कथा के अबाध्य अधूरेपन में भी इंसानी अहसासों की यकसानियत पर रोशनी डालता है |

लेखक के विचारों की गड़गड़ाहट हमें ऐसे कोने में घसीटकर ले जाती  है जहाँ से हमने महज़ घटनाएं देखी है , वे जो परंपरा में बीते समय को उघाड़ना नहीं चाहती | इतिहास और समाजशास्त्र दोनों साथ साथ लेकर चलता उपन्यास बहुत कुछ सहज  निराभास ही खोलता है शांत और संयमित आवाज में मौलिक कल्पनाशीलता के साथ |


उपन्यास की खासियत है कि कहीं से भी शुरू कर सकते हैं कोई भी पहलु उभार सकते हैं | क्रमबद्ध सिलसिले की माने तो समय और स्पेस हर पन्ने में स्वतंत्र है | उपन्यास के हर अध्याय में कुछ धुंधली अस्पष्ट -सी -अंडर -टोन है | जहाँ  कुछ दबा हुआ सा है जिन्हें हम पढ़ते हुए महसूस करते हैं छू नहीं सकते अंत तक बने रहने वाला रोचक रहस्य भी | कहने क अर्थ फिनिशिंग टच के लिए जिन अंतिम सुरों की हम प्रतीक्षा करते हैं वे कभी हमारे हाथ नहीं लगते लेखक ने अनजाने ही सही जो कुछ भी पाठकों के लिए रख छोड़ा है वह निष्कर्ष नहीं देता लेकिन उसके विकल्पों का अन्वेषण जरूर करता है जीवंत बिम्बों में प्रेम तृष्णा संघर्ष का रूपांतरण |


एक शहर कहानी से निकलकर उपन्यास कैसे बनता है बाबरी मस्जिद के ढ़हने के बाद करीम लाला ,दाऊद इब्राहिम के दुबई भाग जाने के बाद गुजरी बंबई जो मुंबई होने को बैचेन थी 2002 गुजर गया था सायरा और राघव की कहानी उसी दौर की कहानी थी जो मछवारों की दुनिया थी | मुंबई के सबसे चमकते इलाके अंधेरी के सबसे  अंधेरे इलाके का वह छोर जो एक समय में कई कई समय जी रहा होता है | मुंबई की वह चाल जहाँ पहुँचने पर धरती खत्म हो जाती है | उस दौर के किस्से जब कोई लड़का दाऊद इब्राहिम मुस्लिम डॉन नहीं बना था या दगडी चाल में रहने वाले अरुण गवली को किसी हिंदू हृदय सम्राट ने भी डॉन घोषित नहीं किया था सायरा की अम्मी अब्बा का प्यार उसी दौर का था जिसे उपन्यास के समसामयिक सन्दर्भों में बखूबी पिरोया गया है  |


11  किस्सों में बंटे उपन्यास में भीड़ के आगोश में नींद की झपकियां लेती मुंबई है तो  बेचैनी में तर बतर चेहरों की बानगी भी  ---

मसलन :ग्यारहवें किस्से से ''मुंबई में सब कुछ अधर में था-बीच में लटका हुआ, कभी पूरा न होने वाला।थकना ज्यादा था चलना कम। चलना ज्यादा था पहुंचना बहुत कम! यहां कोई भी पूरा नहीं था। जो भी जितना भी था, वह आधा-आधा था, अधूरा था।’ (पृ 134 )


कथा जितनी वैश्विक है उतनी स्थानीय भी  | बकौल गीत चतुर्वेदी :मुंबई की शबिस्ता में पसरी उस अमूर्त बात को छूने की कोशिश की है ,जिसके मोह में लोग शाम -ए -अवध और सुबह -ए-बनारस छोड़ आते हैं |

सबसे  खास बात भाषा की कहीं कोई मरोड़ नहीं है | बल्कि खुलने की प्रक्रिया है | 

एक  ऐसा उपन्यास जिसका लेखन  एक समय विशेष के संदर्भ में हुआ | कहीं अपने कथ्य में उसके  विविध चरित्र और चोखटें हमारे  आज के समय में है | समय,इतिहास  और कोण के चुनाव में कहीं वे संदर्भ काम करते हैं  लेखक  उस समय का नहीं है लेकिन व समय उसके लेखन में है | 

काफ्ता की ही कहानियों को लें उनमें समय नहीं लेकिन वे एक विशेष समय की रचनाएं हैं यहाँ जैसे सारा मुंबई वर्सोवा ,डोगरी में उतर  आया और अपने  समय के सारे जुगाड़ अस्तित्व पर हावी हो गए |  

यहाँ लेखक की दो जद्दोजहद विशेष रूप से उल्लेखनीय है पहली अपरिचित लगने वाले खंडों को पाठकों के लिए परिचित कराना और परिचित क्षेत्रों के अपरिचित अनुभव स्तरों की कई कोणों से खोज की है | 

पात्र राघव ,सायरा अफसाना ,जालना सुरेखा आदि मुंबई के हैं और मुंबई इनकी | चमचमाते  उपनगर अँधेरी से लगा हुआ अँधेरा इनका | 

मछुआरे की कार्य शैली का जानकारीपरक दस्तावेज, ''किनारे से लगी नाव से मछलियां उतारना फिर उन्हें अलग करना ,पापलेट ,रोहू ,कोलबी काने तारली घोंघे ,झींगे ,बॉम्बे डोक। केंकड़े सभी से अलग कर छांटना मछलियां धोना  ठीक तरह से टोकरे में रखना फिर उन्हें बेचने जाना नाव की सफाई ,जाल को सुलझाना फैलाना'' (पृ 34 -35 )

उपन्यास के कुछ कथन जैसे कविता में गद्य रचा गया हो मसलन :

मुंह से समंदर उगल दिया ही (पृ 36 )

सायरा (बेटी )उसकी बरकत थी (37 )

एक पानी की दुनिया और एक एक जमीन की दोनों छोर  अलग -अलग (पृ 39 )



बिरादरी मजहब ने औरतों के हक को कितना मारा है इसे खुदा ही जानता है ''कुरान ने कभी औरतों को इतना मजबूर नहीं माना जितना कम अक्कल मर्द कर रहें हैं | . (पृ 48 ) 

इस्लाम बेटियों की बरकत है बेटों की नहीं और तू सिलसिला चलाने की बात करता है ''(पृ 51 )

हिन्दू लड़के और मुसलमान के फर्क पर लेखक ने कहीं विमर्श पर हाथ बचाते हुए उपन्यास को मोड़ दिया है जबकि यह सिरा उपन्यास में बार -बार उभरा है |

मसलन:जालना(अरफाना का पति ) के दूसरे विवाह पर अरफाना का विलाप और जालना का इस्लामिक चार निकाह की दुहाई देना जिसके जवाब में अरफाना के शब्द --

इससे तो हिन्दू लड़के के साथ भाग गई होती तो यह मुंह न देखना होता | प्यार से रखता , उसकी औकात में रखकर घर तो न उठा लाता ''(पृ 51 ) पिछली जिंदगी के राज उगलती अरफाना के हिस्से सिर्फ विलाप ही रह जाता है क्योकि  ''औरतों का ससुराल छोड़कर जाने का मतलब मायके में तो वह परायी थी और ससुराल छोड़कर   जाने के बाद यहां भी कुछ न बचता हर औरत की यही नियति (पृ 52 ) मुस्लिम औरतों के हक में यह उपन्यास अध्ययन के कई सिरे जोड़ता है  | अरफाना 1985 की शहबानों नहीं थी जो आजाद हिन्दुस्तान में आजाद मुस्लिम औरतों का चेहरा बनी थी | 


मजहब जिंदगी में तभी  काम का है जब वह दिलों की बगिया को हरा भरा रखें  दिसंबर 1992 के दंगे कई सारे जालना को लील गये | हिंदू मुसलमानों की लाशें गिनना मुश्किल था जहाँ देश में  इंसानियत लहूलहान थी



पहले अध्याय की दो बातें विशेष उल्लेखनीय होने के साथ विमर्श के किसी पायदान पर खड़ी मिली 

'' अपनी हंसी की आवाज पर इस तरह दुनिया भर की नजरों को देखते सायरा का झेप जाना'' (स्त्री को खुलकर न हंसने को  'अदा' कहने का चलन है हमारे कथित समाज में )

सायरा की कमर को बैसाखी से धकाने वाली हरकत को स्टेशन पर खड़ी भीड़ ने देखा ,दुखद तआज्जुब है कई मुस्कुरा रहे थे कई आँखें  तरेर रहे थे | ''समाज के दो वर्ग इस घटना पर उभरकर आते हैं | इधर कहानी अँधेरी ,वर्सोवा कोल्हीबाड़ा के कोनों से गुजरते हुए पूरी मुंबई की ख़ाक छानती है  | अध्याय दो में मजहबी  इल्म का एक नायब उदाहरण देखने को मिला जिसमें सायरा की माँ अरफ़ाना की  'दीनी तालीम'और ईमानदार मौलवी की लड़की होना  जिसने मदरसे में जाकर अपने अब्बा से कुरान की आयतों से लेकर हदीस की बातें सुन रखी थीं |''

11 किस्सों   कविताओं के कोने से झांकते हुए बहुत कुछ बेनकाब करने की कोशिश की है |

रघु और सायरा के प्रेम से उपन्यास विस्तार पाते हुए उन आतंकी घटनाओं से पगा है जो आज भी अपने समय की गवाही देने को तैयार खड़ी है| उपन्यास में कई ऐसी नसीहतों से रूबरू होते  पाठक मुंबई के  चरित्र ही नहीं , लोकल, स्टेशन से गुरजरते हुए वहां के बाजार में बसे उस टुकड़े को रचते हैं जो संघर्ष और प्रस्तिस्पर्धा का प्रतिफल है | मनुष्य की जिजीविषा और अस्मिता के सवालों से जूझते हुए पात्र गति पकड़ते हैं  कहीं किसी हिस्से में अनावश्यक मोड़ या ठहराव अबाध्य अभावों की जगह जरूर घेरता है | 

उपन्यास कुछ अधूरे सवालों के अधूरे जवाब  अपने पीछे छोड़ जाता है |  यह बात तो सिरे से बेसूरी ही गई है कि 'प्यार  मजहब नहीं देखता' लेकिन  उपन्यास में यह बार -बार सुनाई देती रही | निश्चित ही   लेखक के लिए इस औपन्यासिक कृति का साथ लम्बा और दुर्गम रहा होगा | मराठी से प्रभावित मुंबइयां ने इसे आंचलिकता दी |  लेखक ने जमीन के उस टुकड़े को बखरा है जो अब पुरानी सीमाओं से बहुत विस्तार पा चुकी है |अपने विषय के तमाम ज़रूरी– गैर जरूरी ब्योरों को नाना सूत्रों से एकत्रित करता उपन्यास इतिहास और समाजशास्त्र के उन कोनो की पड़ताल करता है जिसमें  दंगों की त्रासदी से बेवजह   तबाह होते आदमी की जिंदगी में महज घटनाएं दर्ज रह जाती हैं| 

समग्रतः उपन्यास पुरज़ोर तरीक़े से पिछड़ी और पर्दे की कई परतों में छिपी हुई औरतों के जज़्बात बयां करता  हैं एक ऐसे तबके की  कहानी जो न मजहब समझता है, न कानून, न दंगे न दंगों की वजहें ,न उसे  अपने  हालत का  भान है लेकिन जिंदगी की आंच में तपते हुए उसमें एक मुक्ति की छटपटाहट है | दुःख के भीतर से सुख पकड़ लेने की कोशिश | 

किताब के  कुछ   हिस्से में  इंसान से इंसान की मोहब्बत  जो आज भी हमारे समाज में नाकाबिल-ए-बर्दाश्त समझी जाती है उभरकर सामने आती है  शायद इसलिए दंगे की राह आसान हो जाती है | 

साहित्य हो या समाज   धर्म के ख़िलाफ़  मोहब्बत सदा आकर्षण के केंद्र में ही रही   इसलिए मजहबी दंगों  से गिरता , उठता , और जीता  हर किरदार उपन्यास में किसी यौद्धा सा लगा| 

शायद हर ज़माने में ढांचे और नियम क़ानून तोड़ने वाले लोग बसे होंगे तभी ये दुनिया थोड़ी बहुत सहज और जीने लायक़ बची रही होगी दंगों से उभरी उजड़ी और बसी मुंबई उसी का उदाहरण है ।बहरहाल एक ख़ास किस्म की सतर्कता के साथ बौद्धिक पहलू को शिद्द्त से सामने रखने की कोशिश उपन्यास में नजर आती है फिर भी अपने समय के कुछ जरुरी सवालों से बचा गया इस बात में कहीं कोई संदेह नहीं |

इतिहास में दर्ज तारीखों पर निगाह डालते लेखक की आँखों में जैसे पूरा घटना क्रम तैरने लगता है  बैचैन होते मंजर  में कहीं काफ्का की कथाएं टकराती रहीं तो कहीं शाहबानों के फैंसलों पर तनाव झटकती दिल्ली, तो कहीं आरक्षण की आग में जलती सड़कों पर भगवान राम का  नारों  तब्दील हो जाना  सुनाई देता रहा |दरअसल न इतिहास की परतों में जिया  जा सकता है न भविष्य के यूटोपिया में|  विषयों को हाशिये से निकाल कर मुख पृष्ठ पर लाने की लेखकीय जवाबदेही से लेस  बेगुनाही की सजा काटते समय में  उपन्यास नये सिरे से जीने की निगाह खोजता है यही उपन्यास सार्थकता है


समीक्षक --डॉ शोभा जैन ,इंदौर

उपन्यास : सलाम बॉम्बे व्हाया वर्सोवा डोंगरी

लेखक: सारंग उपाध्याय

प्रकाशक: राजकमल प्रकाशन

प्रकार : पेपरबैक संस्करण

मूल्य: ₹250 







 

Saturday, December 16, 2023

व्यंग्य एक शांत अस्त्र के मानिंद हो चला है
-------------
व्यंग्य लिखना  खतरा हुआ करता था लेकिन अब जोखिम कोई उठाता नहीं..
व्यंग्य की धार के सामने कोई आना नहीं चाहता।
वह मनोविनोद और समय गुजारने के लिए /छपने जैसी किसी सक्रियता के लिये मोबाइल, टीवी इंटरनेट आदि सुविधाजनक साधन साधन की तरह इस्तेमाल हो रहा है..इससे अधिक नहीं..
इन दिनों व्यंग्यकारों के पास व्यंग्य लेखन के ज्वलंत मुद्दे नहीं पहुंच रहें
(शायद समय का ट्रैफ़िक जाम हैं )
इसलिए उनके 'ज्यादातर विषय'
फेसबुक की रीच, लाइक कमेंट्स पर केंद्रित होते हैं या फिर साहित्यिक संस्थाओं /किताबों के लोकार्पण में चल रहें घाल मेल पर
मुद्दे ये भी व्यंग्य का विषय ही हैं लेकिन
बहुत ज्यादा इन विषयों की पुनरावृत्ति दिखाई दे रही.. पढ़ने से पहले विषयवस्तु अपना अर्थ समझा जाए तो नीरसता बाधित कर रही है ऐसा समझना चाहिए...
केवल मित्रों के कमेंट्स में धारदार शब्द महसूस होता है लेकिन व्यंग्य में धार कहीं चुभती नहीं...
कटाक्ष में जिज्ञासा का आकर्षण नजर नहीं आ रहा.. (मसलन :व्यंग्यकार ने किस मुद्दे को कौन से नयेपन के साथ रखा जिसमें गहरा कटाक्ष था )
विषयों की पुनरावृत्ति से बचना होगा...व्यंग्य एक शांत अस्त्र के मानिंद हो चला है...आक्रोश और विरोध कुछ सहमे हुए हैं।
--डॉ शोभा जैन



 

 https://lnkd.in/dDMbwQEt

आप पीएच-डी क्यों करना चाहते हैं ,पीएचडी की राह में आड़े आने वाले अयाचित रोडे। ... फेसबुक पर अविश्वसनीय रूप से वायरल पोस्ट

खबरो में विमर्श और शीर्षक में विचार मिलता नहीं 

----------------------
   आमतौर पर खबरों में विमर्श और शीर्षक में विचार मिलता नहीं|  डेक्कन लिटरेचर फेस्टिवल पुणे के ''शब्द संवाद :समकालीन हिंदी साहित्य'' पर केंद्रित सत्र के साथ ऐसा नहीं हुआ|   पुणे से लेकर मध्यप्रदेश के अख़बारों ने न सिर्फ शीर्षक बदला बल्कि खबरों में भी फेरबदल कर  उसे उसके मौलिक स्वरूप में प्रकाशित किया | अन्यथा अक्सर आयोजनों में विभिन्न मीडिया संस्थानों के पंक्तिबद्ध पत्रकार /मीडियाकर्मी मौजूद तो  होते हैं  लेकिन एक ही बात समान  शीर्षक के साथ प्रसारित होती है | आपस में खबरों के  लेनदेन का भाईचारा खबर की  समानता में साफ झलकता है |  कम से कम इस बार शीर्षकों ने निराश नहीं किया|   पुणे के अख़बारों के साथ इंदौर के अखबारों ने भी खबर में फेरबदल कर  विचार को साझा करने  का उपक्रम रचा |
सभी मीडिया संस्थानों के प्रति आभार उन्होंने विषयवस्तु को पर्याप्त जगह दी | 
 #लोकमत, #सुबह सवेरे, #चैतन्य लोक,  #इंदौर समाचार पत्र ,#स्वतंत्र मीडिया , #दैनिक भास्कर ,
#प्रभात किरण,आदि आदि 
Aaj Ka Anand News Bulletin
साहित्य सृजन हेतु भाषा पढ़ना जरूरी ः डॉ. शोभा जैन
पढ़ें विस्तार से
https://shorturl.at/hjz45

---------------------------




















 

स्वदेश में प्रति रविवार स्तंभ  इस सप्ताह का लेख  हम चाहते हैं हमारा वर्चस्व कायम रहे   21/04/2024 हम जिस समय में हैं हमारा जीवन तनाव, उथल-पु...