समय के पद चिह्न....
Wednesday, April 24, 2024
Saturday, April 20, 2024
Wednesday, March 20, 2024
15 मार्च शुक्रवार रात्रि 9 बजे देवशील मेमोरियल के फ़ेसबुक पेज पर 'एक मुलाक़ात’ कार्यक्रम में मिलते हैं सुप्रसिद्ध साहित्यकार डॉ.शोभा जैन जी से।
संचालन सुप्रसिद्ध ग़ज़लकारा प्रिय Sonia Aks Sonam का।
Wednesday, February 14, 2024
जबकि प्रेम को उपहास के कटघरे में खड़ा कर चुके हैं
Thursday, January 18, 2024
मेरा लेख प्रजातंत्र में
इन आँखों ने देखे हैं, नए साल कई
कैलेंडर का एक पेज नष्ट होने के बाद नया पेज खुलता है जिस पर नया महीना अंकित होता है। ये महीने मौसम की चाल के साथ कदमताल करते हुए प्रतीत होते हैं कील पर इन बदलावों का कोई असर नहीं पड़ता.| .कैलेंडर बदलने से न तो भाग्य बदलता है न स्वभाव., दोनों उस कील की तरह हैं, जिस पर कैलेंडर के पेज फड़फड़ा जाते हैं।आँगन में जाड़े की बतियाती दोपहरें नसीब होती रहें शाम होते ही पंछी अपने घोंसलों में लौट सके और क्या चाहिए बेगानेपन के बरक्स एक नई प्रत्याशा|
दुर्भाग्य से बिलकुल फुटपाथ पर बैठने वाले ज्योतिषी की तरह हर कोई इन दिनों अपने आपको भविष्यवेत्ता मान बैठा है राजनीतिक विश्लेषक या सामाजिक कार्यकर्ता, कुछ नहीं तो पत्रकार बनकर भविष्य को खबरों में समेटा जा रहा | रेत की तरह फिसलते समय में न तो कोरोना किसी की हाथ की रेखाओं में दिखाई दिया, न वो सारे घोटाले जो बीते वर्ष की सुर्ख़ियों में थे | लेकिन गुजरे सभी इसी से| ऐसा ज्योतिषशास्त्र सम्भवतः पहली बार देखने में आया | सम्भवतः जनता भी अब मंथरा वाली उसी मानसिकता की शिकार हो गई है जिसका जिक्र कभी प्रभाष जोशी जी ने किया था ''मंथरा दासी से रानी नहीं हो सकती थी चाहे जो राजा हो जाए इसलिए कौन राजा होता है और कौन नहीं इसकी उसे क्या फिकर होती?लेकिन लोकतंत्र में मंथरावाला रवैया रखना तो एकदम गलत है|
पिछले कुछ वर्षों से देश का माहौल ऐसा बन गया है कि धर्मनिरपेक्षता और धर्माधता पर विचारों का टकराव एक नया तूफान खड़ा कर रहा है। सभा-गोष्ठियों, परिसंवायें में धर्मनिरपेक्षता की प्रक्रिया को उजागर करने के लिए हिंदी साहित्य पर छन्नी डाली जा रही है। छन्नी से छनकर जो तत्व निकल रहा है वह प्रमाण दे रहा है कि धर्मनिरपेक्षता एक ऐसा प्रत्यय है जिसे परिभाषित नहीं किया जा सकता। धर्म की सीमा कभी संकुचित हो जाती है कभी विस्तृत। इसमें ऐतिहासिक समय और मानवीय समय अलग-अलग अर्थ संदर्भ ग्रहण करता है और बनी-बनाई भावनाओं के साँचे टूटकर नए आकार ग्रहण कर लेते हैं।
जबकि जमीनी हकीकत है हमने घरों में झांका नहीं, न झांकना चाहते हैं खबरें केवल वही जिनका सीधा सरोकार पार्टी या दल से है भोगे जा रहे सच आज भी कलम में उतरने का साहस नहीं कर पा रहे | और हम कह रहे साल नया है| इस नए में बदलेगा क्या ?सुनवाई के लिए कई अहम फैसलें फाइलों में कैद, अदालतें आज भी बंद है, चुनाव की रैलियों सभाओं को छूट, पुस्तकालय बंद, विद्यालय बंद, नौकरी से निकाले जा चुके तमाम निर्भर जिंदगियों का क्या जिसे राजनीतिक सुर्ख़ियों से कोई वास्ता नहीं, मंथरा की तरह सोच से जन्में आम आदमी के लिए राजा कोई भी हो, ताज किसी के भी सर हो उन्हें जीवन की सुरक्षा चाहिए जो बदला हुआ साल दे सके |
बदलाव साल का हो या तारीखों का वास्तव में बदलता क्या है ? परिवर्तन की कुलबुलाती आकांक्षा में जीवन की कशमश और मनुष्य की पीड़ा भी प्रतिध्वनित होती है।हमारी तकलीफें और जिजीविषा इस बदलाव के साथ आगे बढ़ जाती अपना स्वरूप बदलती है।कभी-कभी कोई छूटा हुआ तीर दुखों को भेदते हुए निकल जाता है ।लेकिन समय की प्रत्यंचा पर वह अभेद्य ही बना रहा है।
दुनिया का हर व्यक्ति स्वतंत्रता को मनुष्य होने की पहली शर्त मानता आया है और सम्भवतः उसके हरण से अधिक त्रासद उसके लिए कुछ भी नहीं ।लेकिन क्या मनुष्य उस पत्थर की तरह हो सकता है जो चारों तरफ से नदी की धारा से घिरा है अकेला है फिर भी अपनी सत्ता में स्वतंत्र है।
देश के चारों ही स्तम्भ से बहुत अपेक्षाएँ हैं ज्वलंत विषयों को लेकर सुचिंतित विश्लेषण, एक समांतर सामाजिक हस्तक्षेप के साथ हम देख सकेंगे उम्मीद करते हैं क्योकि कोई भी अर्थपूर्ण प्रक्रिया बिना विश्वएसनीयता के सम्भव नहीं| साल कोई भी हो नौकर का मालिक पर, जनता का सत्ता पर,विश्वास के भरोसे ही है | निजी आस्था ओं और उसकी सार्वजनिक निष्ठा ओं को साधे बिना विरोध की खाई नहीं भरी जा सकती फिर कितने ही उत्सव और जश्न मना लें |
पूरा मीडिया हर साल समस्या से जूझता है अखबारों और खबर चैनल के उम्मीदवारों और पार्टियों से काला धन लेकर विज्ञापनों और प्रचार सामग्री को खबर बना कर कैसे छापें और प्रसारित करें जिससे यह काला धंधा गति पकड़े| चुनाव हो या या कोई अप्रत्याशित घटना उससे जन्मी बुनियादी समस्याएं, इस पूरी इबारत के बीच क्या था जो न तो खुलकर लिखा गया न सामने लाया गया |संकट से गुजरने के जुमले जरूर दोहराए जाते हैं साल बदल जाता है | सत्ता में कहीं कोई बैचेनी नहीं दिखती | कोरोना ने जीवन के कितने साल पीछे कर दिया हम उसे भूला चुके है जो खोया उसकी भरपाई आज भी न हुई है और हम उत्सवप्रिय भारत का एक वर्ग नए साल के जश्न में फिर डूबा |
डॉ शोभा जैन, इंदौर
मित्रों ,जानकीपुल में मेरी विस्तृत टिप्पणी--- भाषा के लिहाज से एक ख़ास उपन्यास ' सलाम बॉम्बे व्हाया वर्सोवा डोंगरी'
गद्य की गहन ऐंद्रिकता में किसी इंटीमेट पेंटिंग की तरह इत्मीनान से भीतर उतरता उपन्यास
यहाँ मूल पाठ के चंद हिस्से बहुत विस्तार में पढ़ने के लिए लिंक पर क्लिक करें
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जिस भाषा ने हिंदी फिल्मों की कामयाबी के सितार बांधे वह मुम्बइया बोली साहित्य साधेगी इसका उदाहरण है सलाम बॉम्बे व्हाया वर्सोवा डोंगरी |
उपन्यास के लेखक सारंग उपाध्याय ने कृति के शीर्षक में मराठी वर्तनी का प्रयोग कर प्रचलन की परंपरा का निर्वहन ही किया है (वाया के स्थान पर व्हाया )|उपन्यास में मौलिकता की ताजा लकीरें लेखक की सजगता की सूझ में डूबी हुई हैं | जो बूझ के लिए आँखें बंद कर बाचने का आग्रह करती है |
11 किस्सों में बटे उपन्यास में भीड़ के आगोश में नींद की झपकियां लेती मुंबई है तो बेचैनी में तर बतर चेहरों के अनकहे किस्से |
इच्छाओं का अपहरण करती मुंबई में सपने पूरा करते -करते खुद सपना बन जाते लोगों की जिंदगी की बानगी है सलाम बॉम्बे व्हाया वर्सोवा डोंगरी| लेखक ने महज़ मच्छी बाजारों की खाक नहीं छानी है बल्कि इतिहास होते लोगों में डूबते उतरते समय का नक्श तराशा है|ऐसा समय जो दस्तावेजों में कई-कई बार ढूंढने , जगहों पर ठहरने, हर तरफ देखने पर भी कोई खास निष्कर्ष नहीं दे पाता कुछ ऐसी जद्दोजहद उपन्यास में दिखी | घटनाओं को जिस सलीके से उपन्यास के कोने में करीने से सजाया है जैसे किसी घटना का आँखों देखा हाल बयां किया जा रहा हो | मसलन :1992 का साल जा चुका था और 1993 की फरवरी तक दंगों से झुलसी बंबई का दिल जितना छलनी हुआ ,उतना पहले कभी नहीं '' यहाँ (पृ 82 )'हिन्दू -मुसलमान' की लाशें कहने के बजाय महज़ इंसानियत लहूलुहान थी लिखना ही ज्यादा मुनासिब होता |
लेखकीय सोच के औजारों पर चमकती डोंगरी की दुनिया लाइम लाइट के घराने से घबराने वाले पिछली पक्ति में बैठे उन लोगों पर रोशनी डालती है जहाँ छोटे -छोटे अंतरालों में बहुत कुछ घट जाता है | शांत समंदर में पटरियों पर दौड़ती जिंदगी की कहानी जहाँ अजानें आर्दशों से टकराती है | मंदिरों की घण्टियों और चर्च की प्रार्थनाओं में मस्जिदों और नमाजों में डूबते लोगों की कहानियां बदल जाती है | मसलन :
दोनों को (जालना और दत्ता) न किसी बाबर नाम के आदमी का पता था और न यह पता था कि अयोध्या में कोई राम मंदिर है | जालना को बस इतना पता था कि एक मस्जिद अचानक से 16 दिसंबर को ढह गई वह न कभी स्कूल गया न जमीन की दुनिया से उसे कोई लेना देना था न अख़बार, न सियासत उसके मोटे दिमाग में घुसते थे उसकी समझ में नहीं आ रहा था महज छोटी सी खबर ने पर पूरे देश में यह हाहाकार क्यों मचा रखी थी ?''(पृ 73 )
इतिहास में दर्ज तारीखों पर निगाह डालते लेखक की आँखों में जैसे पूरा घटना क्रम तैरने लगता है बैचैन होते मंजर में कहीं काफ्का की कथाएं टकराती रहीं तो कहीं शाहबानों के फैंसलों पर तनाव झटकती दिल्ली, तो कहीं आरक्षण की आग में जलती सड़कों पर भगवान राम का नारों तब्दील हो जाना सुनाई देता रहा |दरअसल न इतिहास की परतों में जिया जा सकता है न भविष्य के यूटोपिया में विषयों को हाशिये से निकाल कर मुख पृष्ठ पर लाने की लेखकीय जवाबदेही से लेस बेगुनाही की सजा काटते समय में उपन्यास नये सिरे से जीने की निगाह खोजता है यही उपन्यास सार्थकता है
हँसते हुए जालना ने दत्ता से कहा --''हम तो समुन्दर किनारे ही थे फिर नाव में नमाज पढ़ लेते हैं न भी पढ़ें तो कौन -सा अल्लाह केवल हमारी ही नमाज सुनने के लिए बैठता है'' जालना की बात सुन दत्ता ने कहा था, '' इन मौलानाओं ,मस्जिदों और पंडितों के चक्करों में न पड़ना जालना ., खुदा ही जानता है कि तूने कितनी नमाज पढ़ी है और मैंने कितनी पूजा पाठकी की है | ''(पृ 73 )
कथा के कुछ अधूरे सिरे कई सवाल और मुबाहिसे हम तक छोड़ जाते हैं मसलन : हिंदू लड़के से विवाह उपन्यास में कई दफा उभरा | जालना ने भी अरफाना को चार निकाह पड़ने वाली बात कहकर मजहबी मुद्दे को सामने रखा जो अधिकारों के बरक्स ही सही विमर्श के द्वार खोलता है | लेखक ने इस विषय से बचते हुए कथा को मोड़ दिया | सायरा -रघु के मार्फ़त हमें हमारी स्थूल दुनिया के कामिल होने का संदेश भी सलोने ढंग से मिलता है़| गद्य की गहन ऐंद्रिकता में किसी इंटीमेट पेंटिंग की तरह इत्मीनान से भीतर उतरता उपन्यास जातिवाद के बैगेज के साथ आने वाली शुचिता की भोथरी अवधारणा को नापजोख करते हुए वजूद के बुनियादी सवालों से टकराता है़|
उपन्यास में प्यार जैसी लगभग अपरिभाषेय भावना को ठीक-ठीक पकड़ने की कोशिश अनूठा, इंटेंस लेकिन कुछ कोनों में बेहद उदास कर देने वाला गद्य कथा के अबाध्य अधूरेपन में भी इंसानी अहसासों की यकसानियत पर रोशनी डालता है |
लेखक के विचारों की गड़गड़ाहट हमें ऐसे कोने में घसीटकर ले जाती है जहाँ से हमने महज़ घटनाएं देखी है , वे जो परंपरा में बीते समय को उघाड़ना नहीं चाहती | इतिहास और समाजशास्त्र दोनों साथ साथ लेकर चलता उपन्यास बहुत कुछ सहज निराभास ही खोलता है शांत और संयमित आवाज में मौलिक कल्पनाशीलता के साथ |
उपन्यास की खासियत है कि कहीं से भी शुरू कर सकते हैं कोई भी पहलु उभार सकते हैं | क्रमबद्ध सिलसिले की माने तो समय और स्पेस हर पन्ने में स्वतंत्र है | उपन्यास के हर अध्याय में कुछ धुंधली अस्पष्ट -सी -अंडर -टोन है | जहाँ कुछ दबा हुआ सा है जिन्हें हम पढ़ते हुए महसूस करते हैं छू नहीं सकते अंत तक बने रहने वाला रोचक रहस्य भी | कहने क अर्थ फिनिशिंग टच के लिए जिन अंतिम सुरों की हम प्रतीक्षा करते हैं वे कभी हमारे हाथ नहीं लगते लेखक ने अनजाने ही सही जो कुछ भी पाठकों के लिए रख छोड़ा है वह निष्कर्ष नहीं देता लेकिन उसके विकल्पों का अन्वेषण जरूर करता है जीवंत बिम्बों में प्रेम तृष्णा संघर्ष का रूपांतरण |
एक शहर कहानी से निकलकर उपन्यास कैसे बनता है बाबरी मस्जिद के ढ़हने के बाद करीम लाला ,दाऊद इब्राहिम के दुबई भाग जाने के बाद गुजरी बंबई जो मुंबई होने को बैचेन थी 2002 गुजर गया था सायरा और राघव की कहानी उसी दौर की कहानी थी जो मछवारों की दुनिया थी | मुंबई के सबसे चमकते इलाके अंधेरी के सबसे अंधेरे इलाके का वह छोर जो एक समय में कई कई समय जी रहा होता है | मुंबई की वह चाल जहाँ पहुँचने पर धरती खत्म हो जाती है | उस दौर के किस्से जब कोई लड़का दाऊद इब्राहिम मुस्लिम डॉन नहीं बना था या दगडी चाल में रहने वाले अरुण गवली को किसी हिंदू हृदय सम्राट ने भी डॉन घोषित नहीं किया था सायरा की अम्मी अब्बा का प्यार उसी दौर का था जिसे उपन्यास के समसामयिक सन्दर्भों में बखूबी पिरोया गया है |
11 किस्सों में बंटे उपन्यास में भीड़ के आगोश में नींद की झपकियां लेती मुंबई है तो बेचैनी में तर बतर चेहरों की बानगी भी ---
मसलन :ग्यारहवें किस्से से ''मुंबई में सब कुछ अधर में था-बीच में लटका हुआ, कभी पूरा न होने वाला।थकना ज्यादा था चलना कम। चलना ज्यादा था पहुंचना बहुत कम! यहां कोई भी पूरा नहीं था। जो भी जितना भी था, वह आधा-आधा था, अधूरा था।’ (पृ 134 )
कथा जितनी वैश्विक है उतनी स्थानीय भी | बकौल गीत चतुर्वेदी :मुंबई की शबिस्ता में पसरी उस अमूर्त बात को छूने की कोशिश की है ,जिसके मोह में लोग शाम -ए -अवध और सुबह -ए-बनारस छोड़ आते हैं |
सबसे खास बात भाषा की कहीं कोई मरोड़ नहीं है | बल्कि खुलने की प्रक्रिया है |
एक ऐसा उपन्यास जिसका लेखन एक समय विशेष के संदर्भ में हुआ | कहीं अपने कथ्य में उसके विविध चरित्र और चोखटें हमारे आज के समय में है | समय,इतिहास और कोण के चुनाव में कहीं वे संदर्भ काम करते हैं लेखक उस समय का नहीं है लेकिन व समय उसके लेखन में है |
काफ्ता की ही कहानियों को लें उनमें समय नहीं लेकिन वे एक विशेष समय की रचनाएं हैं यहाँ जैसे सारा मुंबई वर्सोवा ,डोगरी में उतर आया और अपने समय के सारे जुगाड़ अस्तित्व पर हावी हो गए |
यहाँ लेखक की दो जद्दोजहद विशेष रूप से उल्लेखनीय है पहली अपरिचित लगने वाले खंडों को पाठकों के लिए परिचित कराना और परिचित क्षेत्रों के अपरिचित अनुभव स्तरों की कई कोणों से खोज की है |
पात्र राघव ,सायरा अफसाना ,जालना सुरेखा आदि मुंबई के हैं और मुंबई इनकी | चमचमाते उपनगर अँधेरी से लगा हुआ अँधेरा इनका |
मछुआरे की कार्य शैली का जानकारीपरक दस्तावेज, ''किनारे से लगी नाव से मछलियां उतारना फिर उन्हें अलग करना ,पापलेट ,रोहू ,कोलबी काने तारली घोंघे ,झींगे ,बॉम्बे डोक। केंकड़े सभी से अलग कर छांटना मछलियां धोना ठीक तरह से टोकरे में रखना फिर उन्हें बेचने जाना नाव की सफाई ,जाल को सुलझाना फैलाना'' (पृ 34 -35 )
उपन्यास के कुछ कथन जैसे कविता में गद्य रचा गया हो मसलन :
मुंह से समंदर उगल दिया ही (पृ 36 )
सायरा (बेटी )उसकी बरकत थी (37 )
एक पानी की दुनिया और एक एक जमीन की दोनों छोर अलग -अलग (पृ 39 )
बिरादरी मजहब ने औरतों के हक को कितना मारा है इसे खुदा ही जानता है ''कुरान ने कभी औरतों को इतना मजबूर नहीं माना जितना कम अक्कल मर्द कर रहें हैं | . (पृ 48 )
इस्लाम बेटियों की बरकत है बेटों की नहीं और तू सिलसिला चलाने की बात करता है ''(पृ 51 )
हिन्दू लड़के और मुसलमान के फर्क पर लेखक ने कहीं विमर्श पर हाथ बचाते हुए उपन्यास को मोड़ दिया है जबकि यह सिरा उपन्यास में बार -बार उभरा है |
मसलन:जालना(अरफाना का पति ) के दूसरे विवाह पर अरफाना का विलाप और जालना का इस्लामिक चार निकाह की दुहाई देना जिसके जवाब में अरफाना के शब्द --
इससे तो हिन्दू लड़के के साथ भाग गई होती तो यह मुंह न देखना होता | प्यार से रखता , उसकी औकात में रखकर घर तो न उठा लाता ''(पृ 51 ) पिछली जिंदगी के राज उगलती अरफाना के हिस्से सिर्फ विलाप ही रह जाता है क्योकि ''औरतों का ससुराल छोड़कर जाने का मतलब मायके में तो वह परायी थी और ससुराल छोड़कर जाने के बाद यहां भी कुछ न बचता हर औरत की यही नियति (पृ 52 ) मुस्लिम औरतों के हक में यह उपन्यास अध्ययन के कई सिरे जोड़ता है | अरफाना 1985 की शहबानों नहीं थी जो आजाद हिन्दुस्तान में आजाद मुस्लिम औरतों का चेहरा बनी थी |
मजहब जिंदगी में तभी काम का है जब वह दिलों की बगिया को हरा भरा रखें दिसंबर 1992 के दंगे कई सारे जालना को लील गये | हिंदू मुसलमानों की लाशें गिनना मुश्किल था जहाँ देश में इंसानियत लहूलहान थी
पहले अध्याय की दो बातें विशेष उल्लेखनीय होने के साथ विमर्श के किसी पायदान पर खड़ी मिली
'' अपनी हंसी की आवाज पर इस तरह दुनिया भर की नजरों को देखते सायरा का झेप जाना'' (स्त्री को खुलकर न हंसने को 'अदा' कहने का चलन है हमारे कथित समाज में )
सायरा की कमर को बैसाखी से धकाने वाली हरकत को स्टेशन पर खड़ी भीड़ ने देखा ,दुखद तआज्जुब है कई मुस्कुरा रहे थे कई आँखें तरेर रहे थे | ''समाज के दो वर्ग इस घटना पर उभरकर आते हैं | इधर कहानी अँधेरी ,वर्सोवा कोल्हीबाड़ा के कोनों से गुजरते हुए पूरी मुंबई की ख़ाक छानती है | अध्याय दो में मजहबी इल्म का एक नायब उदाहरण देखने को मिला जिसमें सायरा की माँ अरफ़ाना की 'दीनी तालीम'और ईमानदार मौलवी की लड़की होना जिसने मदरसे में जाकर अपने अब्बा से कुरान की आयतों से लेकर हदीस की बातें सुन रखी थीं |''
11 किस्सों कविताओं के कोने से झांकते हुए बहुत कुछ बेनकाब करने की कोशिश की है |
रघु और सायरा के प्रेम से उपन्यास विस्तार पाते हुए उन आतंकी घटनाओं से पगा है जो आज भी अपने समय की गवाही देने को तैयार खड़ी है| उपन्यास में कई ऐसी नसीहतों से रूबरू होते पाठक मुंबई के चरित्र ही नहीं , लोकल, स्टेशन से गुरजरते हुए वहां के बाजार में बसे उस टुकड़े को रचते हैं जो संघर्ष और प्रस्तिस्पर्धा का प्रतिफल है | मनुष्य की जिजीविषा और अस्मिता के सवालों से जूझते हुए पात्र गति पकड़ते हैं कहीं किसी हिस्से में अनावश्यक मोड़ या ठहराव अबाध्य अभावों की जगह जरूर घेरता है |
उपन्यास कुछ अधूरे सवालों के अधूरे जवाब अपने पीछे छोड़ जाता है | यह बात तो सिरे से बेसूरी ही गई है कि 'प्यार मजहब नहीं देखता' लेकिन उपन्यास में यह बार -बार सुनाई देती रही | निश्चित ही लेखक के लिए इस औपन्यासिक कृति का साथ लम्बा और दुर्गम रहा होगा | मराठी से प्रभावित मुंबइयां ने इसे आंचलिकता दी | लेखक ने जमीन के उस टुकड़े को बखरा है जो अब पुरानी सीमाओं से बहुत विस्तार पा चुकी है |अपने विषय के तमाम ज़रूरी– गैर जरूरी ब्योरों को नाना सूत्रों से एकत्रित करता उपन्यास इतिहास और समाजशास्त्र के उन कोनो की पड़ताल करता है जिसमें दंगों की त्रासदी से बेवजह तबाह होते आदमी की जिंदगी में महज घटनाएं दर्ज रह जाती हैं|
समग्रतः उपन्यास पुरज़ोर तरीक़े से पिछड़ी और पर्दे की कई परतों में छिपी हुई औरतों के जज़्बात बयां करता हैं एक ऐसे तबके की कहानी जो न मजहब समझता है, न कानून, न दंगे न दंगों की वजहें ,न उसे अपने हालत का भान है लेकिन जिंदगी की आंच में तपते हुए उसमें एक मुक्ति की छटपटाहट है | दुःख के भीतर से सुख पकड़ लेने की कोशिश |
किताब के कुछ हिस्से में इंसान से इंसान की मोहब्बत जो आज भी हमारे समाज में नाकाबिल-ए-बर्दाश्त समझी जाती है उभरकर सामने आती है शायद इसलिए दंगे की राह आसान हो जाती है |
साहित्य हो या समाज धर्म के ख़िलाफ़ मोहब्बत सदा आकर्षण के केंद्र में ही रही इसलिए मजहबी दंगों से गिरता , उठता , और जीता हर किरदार उपन्यास में किसी यौद्धा सा लगा|
शायद हर ज़माने में ढांचे और नियम क़ानून तोड़ने वाले लोग बसे होंगे तभी ये दुनिया थोड़ी बहुत सहज और जीने लायक़ बची रही होगी दंगों से उभरी उजड़ी और बसी मुंबई उसी का उदाहरण है ।बहरहाल एक ख़ास किस्म की सतर्कता के साथ बौद्धिक पहलू को शिद्द्त से सामने रखने की कोशिश उपन्यास में नजर आती है फिर भी अपने समय के कुछ जरुरी सवालों से बचा गया इस बात में कहीं कोई संदेह नहीं |
इतिहास में दर्ज तारीखों पर निगाह डालते लेखक की आँखों में जैसे पूरा घटना क्रम तैरने लगता है बैचैन होते मंजर में कहीं काफ्का की कथाएं टकराती रहीं तो कहीं शाहबानों के फैंसलों पर तनाव झटकती दिल्ली, तो कहीं आरक्षण की आग में जलती सड़कों पर भगवान राम का नारों तब्दील हो जाना सुनाई देता रहा |दरअसल न इतिहास की परतों में जिया जा सकता है न भविष्य के यूटोपिया में| विषयों को हाशिये से निकाल कर मुख पृष्ठ पर लाने की लेखकीय जवाबदेही से लेस बेगुनाही की सजा काटते समय में उपन्यास नये सिरे से जीने की निगाह खोजता है यही उपन्यास सार्थकता है
समीक्षक --डॉ शोभा जैन ,इंदौर
उपन्यास : सलाम बॉम्बे व्हाया वर्सोवा डोंगरी
लेखक: सारंग उपाध्याय
प्रकाशक: राजकमल प्रकाशन
प्रकार : पेपरबैक संस्करण
मूल्य: ₹250
Saturday, December 16, 2023
स्वदेश में प्रति रविवार स्तंभ इस सप्ताह का लेख हम चाहते हैं हमारा वर्चस्व कायम रहे 21/04/2024 हम जिस समय में हैं हमारा जीवन तनाव, उथल-पु...
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अमर उजाला में पढ़ें मेरा ताज़ा लेख -- हिंदी में सर्वमान्य शब्दों की प्रचलित परम्परा के वाहक हम https://www.amarujala.com/columns/blog/hindi-...
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आप शोध कार्य (पीएच-डी.) क्यों करना चाहती हैं ? शोध कार्य की 'राह में आड़े' आने वाले अयाचित रोड़े भी एक रिसर्च का विषय हैं | ------...
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वीणा जुलाई 2021 के अंक में मेरी समीक्षा खुरदुरी हथेलियों पर मखमली शब्दों सी:अपेक्षाओं के बियाबान (कहानी संग्रह )
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राष्ट्रीयता: मनुष्य से मानव की ओर व्यक्ति से विश्व की ओर पारिवारिक साहित्यिक पत्रिका संगिनी के अगस्त २०२० में प्रकाशित
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आंदोलन के अध्याय में स्त्री:कई मोर्चों पर स्त्री की लड़ाई अभी शेष है सुबह सबेरे में प्रति सोमवार स्तम्भ का लेख 18 जनवरी 2021