Sunday, April 30, 2023
मेरे आकर्षण का केंद्र सदा यह नाभि कुंड रहा...
सौंदर्य की नदी माँ नर्मदा
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मॉडर्न होने के लिए कुछ परम्पराओं को नकार ही दिया
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एक अलग किस्म के मनोरोगी बनने की दौड़ सी लगी है।
एक तरफ हमारा मीडिया मुक्त मंडी को विस्तार दे रहा दूसरी ओर उसी अख़बार के दूसरे पृष्ठ पर संस्कृति बचाओं के नारे लगा रहा। ये दोनों एक साथ कैसे संभव है?
ऐसी कौन सी असुरक्षा की भावना है जिसके चलते समाज का मूल ढांचा दरक रहा।
एक सर्वेक्षण में पता चलता है समलैंगिक 'विवाह' के लिए आमद होने वालों में ज्यादातर संख्या महिलाओं की है।
कितना संवेदनशील विषय है. बल्कि गहन मनोविश्लेषण की मांग करता है..
ऐसी महिलाओं (अभी सिर्फ महिलाओं के परिप्रेक्ष्य में )की स्थिति का नेपथ्य क्या होगा जिसको वजह से समलैंगिक साथ को विवाह का लेबल देने की मुहीम छेड़े हैं..
उनके साथ घटित हुई घटनाएं (बलात्कार /विवाह विच्छेद /बचपन का कोई निर्मम अनुभव /असुरक्षा का हावी होना )
एक वजह यहभी उनमे से कुछ सहवास के उस सकारात्मक पक्ष तक पहुंच ही न सकी जिसे भारतीय परम्परा में स्त्री विवाह के कानूनी अधिकार के साथ जीती है। बहुत सूक्ष्म बिंदु है यह ..
धारा के विपरीत कोई कदम क्यों उठाता है?
दुखद यह भी है कि हमारे देश में सेक्स एक बड़ा सीमित बल्कि सताया हुआ शब्द है। पश्चिम चिंतन के नारीवाद के देह से प्रभावित। या यूं कहें रति लम्पटता, शरीरवाद..
हमारे यहाँ काम की सामाजिक -सांस्कृतिक धुरियों को कभी समझा ही नहीं गया.. ऐसे में इसे विवाह जैसे भारतीय संस्कार का लेबल देने पर विचार करना भी न्यायसंगत नहीं..
हम एक ऐसे समय हैं जहाँ सेक्स विवाह के दायरे से बहुत बाहर आ चुका है...
प्रदर्शन और मीडिया इसका जितना लाभ ले सकता है लेता है।
कुल मिलाकर एक खुला व्याभिचार।
आचार्य हजारी प्रसाद द्वेदी जी की एक कृति है --प्राचीन भारत के कलात्मक विनोद
कृष्णदत्त पालीवाल जी ने इस कृति का उल्लेख (कुछ व्याख्या के साथ )किया है जिसमें वे स्पष्ट लिखते हैं--
हमारे देश में इसे (सेक्स एजुकेशन )को व्यापार की दृष्टि से ग्राहक को लूटने का एक माध्यम बना लिया है. मनमाने ढंग से सेक्स के अनगिनत चित्र छाप दिए हैं. बच्चे -जवान -बूढ़े इसे एकांत का मादक मसाला समझकर खरीद लेते हैं...
अब आप क्या कहेँगे...
जहाँ आज पूरा समाज दबी छिपी आवाज़ में ही सही, विज्ञापन की भाषा में ही सही भीतर ही भीतर मान लेता है कि सेक्स से बड़ा कोई सुख नहीं ऐसे में समलैंगिक विवाह जैसा विषय (महिलाओं के विशेष संदर्भ में )बहुत गहन अध्ययन की मांग करता है...
हमारे यहाँ के बुद्धिजीवी कामसूत्र को सिर्फ और सिर्फ पश्चिम की भाषा में समझते हैं। वे नारी को नर की पूरक देहवाद से अधिक सोच नहीं पाते बहुत सुंदर बात इस संदर्भ में पढ़ी थी
'कला में जीवन दोबारा अपने को रचता है --पुनर्नवा करता है।'
हिंदी साहित्य के जिन अध्यताओं ने कामायनी पढ़ी है वे शायद समझते होंगे कामायनी में काम कला के आधार पर ही शैव -दर्शन के नये काव्यदर्शन में ढली है।
हम मॉडर्न युग में है शायद इसलिए ऐसे विषयों को भारतीय परम्परा के परिप्रेक्ष्य में देखने के बजाय, समलैंगिक विवाह जैसे विषयों पर खुलकर बात करने के बजाय, विज्ञापन के उस अर्थशास्त्र को समृद्ध कर रहे जिससे पूरा समाजशास्त्र दरक रहा।
आप स्वीकार करें न करें लेकिन समलैंगिक को विवाह जैसे लेबल की जरूरत का एक पक्ष यह भी है जिस पर खुलकर बात की नहीं जाती un महिलाओं के मन को टटोला नहीं जाता जिनके मन में सम्भवतः सेक्स जैसे विषय को लेकर सिर्फ घृणा ही उपजती है... यह विषय विवाद का नहीं,, पक्ष या विपक्ष का नहीं,, किसी सरकार या अदालत के फैंसले का नहीं बल्कि समाज की उस निर्मम स्थिति पर गहन विचार चिंतन मांगता है जिस पर बात करने से हम कतरा रहे..
साथ रहने के लिए उसे विवाह का लेबल देना क्या महज़ सम्पत्ति के अधिकार कोप्राप्त करने की कानूनी मान्यता है?
डॉ शोभा जैन
दैनिक स्वदेश में प्रति रविवार स्तंभ का लेख
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