Saturday, January 22, 2022

'समकाल के नेपथ्य में' विगत सप्ताह की दो महत्वपूर्ण टिप्पणियां ----




 

अमेजन पर किताब का लिंक अपडेट होते ही पहली प्रति आर्डर की फेसबुक मित्र प्रो. अमिता मिश्र जी ने | अमिता मिश्र जी नई दिल्ली में हिंदी की प्राध्यापक हैं और अपने एक काव्य संग्रह के प्रकाशन के साथ प्रतिष्ठित पत्र –पत्रिकाओं में निरंतर  लिखती रहीं हैं फिलहाल प्राध्यापक के रूप में अपनी सेवाएं दे रहीं है | हाल ही में उनका काव्यसंग्रह (कभी –कभी कुछ नहीं मिलता )प्रकाशित हुआ है  |

दूसरी टिप्पणी ----

डाक टिकटों का संग्रह ही नहीं  बल्कि डाक टिकटों का वैज्ञानिक अध्ययन करने वाले आदरणीय श्री 'फिलेटेली' रविंद्र नारायण पहलवान जी ने ‘समकाल के नेपथ्य में’ कृति के  पन्ने पलटने पर अपनी फेसबुक वाल पर किताब के कुछ शीर्षकों और उसमें संदर्भित टिप्पणी (आदरणीय श्री राकेश शर्मा जी -- संपादक वीणा )को रेखांकित किया है | शेष पूर्ण अध्ययन उपरांत (विशेष ---डाक टिकट संग्राहक श्री रवीन्द्र पहलवान जी के संग्रह में एक लाख से ज्यादा डाक टिकट हैं। इन डाक टिकटों में इंदौर की होलकर रियासत का जारी किया पहला डाक टिकट भी है जो स॑न् 1886 में जारी किया गया था।)
दोनों शब्दशः -------

प्रो. अमिता मिश्र नई दिल्ली-----------------

इंदौर से निकलने वाले पत्र 'साप्ताहिक अग्निधर्मा' की संरक्षक,सहयोगी डॉ. शोभा जैन की पुस्तक "समकाल के नेपथ्य में" (निबंध संग्रह) प्राप्त हुई। शोभा जैन जी लगातार अपने कॉलम और लेखन में उन विषयों को चुनती रही हैं जो दबे ,पिछड़े समाज का सच बयां करते हैं । वे संवेदनशील और साहसी दोनों हैं ऐसा मैं मानती हूं ।
वर्तमान परिप्रेक्ष्य में लिखे गए उनके यह लेख हमारी कई तरह की सामाजिक विसंगतियों की कहानी बयां करते हैं लेखन जब सच्चाई की नब्ज पकड़कर आगे की राह चलता है तो वह अधिक प्रिय हो उठता है। यह पुस्तक कुछ ऐसी ही लगी। फिलहाल पुस्तक पढ़ी जा रही है और इस पर विस्तार से लिखा जाएगा। 
शोभा मैम को बहुत 
बधाई
उनकी इस पहली प्रकाशित पुस्तक पर। वे कह रही थी कि तकनीकी खामियों के चलते उनके कुछ लेख गुम हो गए हैं जो बचा रहा उसे संग्रहीत किया।
एक लेखक की इस खुशी को महसूस किया जा सकता है। वह क्या -क्या गंवा कर इन रास्तों पर चलता है । प्रभा खेतान याद आती हैं जिन्होंने कहीं लिखा था कि सारे शौक मौज से कटकर लिखती रही। 
पुस्तक की भूमिका में लेखन की पीड़ा को बड़ी अच्छी तरह से शब्द दिए गए हैं...!
"सुखिया सब संसार है खावै और सौवे।
दुखिया दास कबीर है जागै और रौवे।।"
कबीर
------------------------------------
'फिलेटेली' श्री रविंद्र नारायण पहलवान जी (इंदौर ) 

क्यों न इंसान को इंसान बनाया जाए!, दर्द की कोई सरहद नहीं होती, हिन्दी साहित्य समाज के हाशिए पर क्यों?, भरतीय संदर्भों का मूल्यांकन, डिजिटल साक्षरता के लिए कितना तैयार है भारत, कैसी धूप कैसी छांव, ओशो की दृष्टि में 'प्रेम' यह कुछ शीर्षक हैं. डॉ. शोभा जैन के निबंध संग्रह 'समकाल के नेपथ्य में. राकेश शर्मा ने लिखा - सत्य के अन्वेषण की तलाश जैसी चिंताएँ.

Monday, January 17, 2022


हिंदी साहित्य के सशक्त हस्ताक्षर प्रो बी.एल.आच्छा जी की टिप्पणी 

डॉ शोभा जैन की पहली पुस्तक। का स्वागत। भावना प्रकाशन, दिल्ली की आकर्षक प्रस्तुति। सौभाग्य से मुझे इसे पढ़ने और लिखने का अवसर मिला।
  समय सचेतन वैचारिकी का स्पंद-------
                           बी. एल. आच्छा
        नवीनता हर समय दस्तक देती रहती है। न तो इतिहास की परतों में जीया जा सकता है, न भविष्य के यूटोपिया में।इसीलिए भारतीय काल-चिंतन इतिहास के सार्थक का ग्रहण और निरर्थक के त्याग का हिमायती रहा है। हम इतिहास, संस्कृति, विरासत, जीवन शैली का कितना ही गुणगान करें। या कि सांस्कृतिक धाराओं की जातीय अस्मिता से कटकर विचारधाराओं का पल्लू पकड़ लें, पर सिद्धि तभी मिलती है ,जब अतीत का नवनीत मार्गदर्शी हो।  विचारधाराएँ जीवन प्रवाह की सततता को नवोन्मेषी बनाती हों। ग्रहण और त्याग नवीन के स्वीकार का अनेकांत है।
           डॉ० शोभा जैन के इस वैचारिक अनुष्ठान में यही जीवन दृष्टि
है, जो ''न तो अतीत-रागऔर न विचारधाराओं के संकरीले प्रवाह से बँधी हैं।बल्कि  समकाल के नेपथ्य में मुखर प्रतिध्वनियों को हाशिए से निकालकर मुख्य पृष्ठ पर लाती हैं। वे साफ कहती हैं कि म्यूजियम बन जाने के बजाय अपनी जड़ों को संजोता नवोन्मेष जरूरी है। इसीलिए ये वैचारिक स्पन्दन जितना जंग छुड़ाते हैं, उतने ही समय के अनुकूल जीवन मूल्यों के लिए प्रेरित करते हैं?
              इन निबंधों में विचारधाराओं के सारे अक्स उतरकर आये हैं। चाहे राष्ट्रीय अस्मिता हो। उदारवाद हो, साम्यवाद हो, विस्तारवादी आर्थिक साम्राज्यवादिता के बाजार हों, सैन्यवाद हो या आतंक के गठबंधन । इन सभी के बीच जन आक्रोश, मानवीय चिताएँ, कमतर संसाधनों वाले वर्ग की चुनौतियाँ शोर मचाती हैं। ये प्रतिध्वनियाँ व्यक्ति चिंता से विश्व चिंता तक जाती हैं;मनुष्य से मानवीयता तक । लेकिन राष्ट्रीय जीवन मूल्यों को अतिक्रांत नहीं करतीं। लेखिका ने इतिहास के ऋण और भविष्य की पुनर्रचना में राष्ट्रीय स्वरूप के नवोन्मेष की वकालत की है। इसीलिए बाजार-युद्ध, सांस्कृतिक आघात, जन आक्रोश की बदलती राजनीति, हिंसक चेहरों की हृदयहीनता, विश्व व्यवस्था में सामान्य जन के पोषण और लोकतांत्रिक चेतना के कई अक्सों पर खुलकर बात की है।
              बदलाव की प्रतिध्वनि में कहीं बदलती तकनीक और रोबोट के साथ आर्टिफिशियल इंटेलीजन्स भी चिंताधारा बने हैं। मानवीय श्रम और रोजगार की चिंताएँ भी। पर इससे भी आगे तकनीक और रोबोटी सभ्यता के आगे मानवीय अस्मिता का सवाल भी। कई पश्चिमी विचारकों की चिन्ताएँ भी इन निबंधों का जाग्रत पक्ष है-"हम एक ऐसी सदी में प्रवेश कर रहे हैं, जहाँ ज्ञान-बोध का संकट एक प्रकार से यूटोपिया और डायस्पोरिया के बीच टकराहट के रूप में आएगा। इन्हीं चिन्ताओं के बीच कहीं गाँधी झाँक जाते हैं, कहीं गाँधी का सत्याग्रह ।कहीं गाँधी के आन्दोलन सत्याग्रहों के मूल में नारी की भूमिका।  गाँधी स्वीकार करते हैं कि उन्होंने सत्याग्रह आंदोलन देश की महिलाओं से सीखे हैं। यहीं लेखिका नीति निर्माण,राजनीति, कानूनी प्रक्रिया में स्त्री की सशक्त भूमिका को तलाशती है। और हैरिस के बहाने रेखांकित करती हैं - इतिहास में जो भी अनाम है, वह औरतों
के नाम है।" और स्त्री-विमर्श का सशक्त नारी स्वर सिमोन द बुआ के स्वर में स्त्री मुक्ति के लक्ष्य को हासिल करने की बात भी करती है।
          भाषा और साहित्य के क्षेत्र में
लेखिका वैचारिक पीठिका ही नहीं रचती, बल्कि मुखौटों पर वार भी करती हैं। वे इस मूल प्रतिज्ञा को केन्द्र में रखती हैं-" अक्षर यदि रूप हैं तो शब्द सौन्दर्य | अक्षर यदि आवृत्ति हैं, तो शब्द कृति। अक्षर अपने कलात्मक संयोजन में कला-कर्म हैं, तो अक्षरों- वर्णों से जुड़ा शब्द भाव-कर्म ।
किन्तु शब्द की सार्थकता अक्षरों-वर्णो का संयोजन मात्र नहीं, सार्थक संयोजन होना चाहिए।"यह 'सार्थकता' जीवन के स्पन्दन और टकराहटों
से आती है, यह स्पष्ट है। वे साफ कहती हैं कि खेमे की चिटें और विचारधाराओं के रंगरोगन
साहित्य को गिरोहबद्ध करते हैं। विचारधाराओं की गुलामी से आक्रांत करते हैं। ममता कालिया की पुस्तक
'कल्चर-वल्चर' के बहाने वे भीड़ और लेखकीय संवेदन  के बीच की फांक को भी लक्षित करती है।सृजन के पुरस्कारवादी, गिरोहवादी, महिमा- मंडनवादी,करतल ध्वनिवादी चेहरों के साथ प्रतिरोध के साहित्य में विवेक की अवधारणा को तलाशती हैं।
            निश्चय ही इन निबंधों में लेखिका का जाग्रत टिप्पणीकार जितना नेपथ्य के असल को सामने लाता है, उतना ही मानवीय विवेक के साथ प्रतिरोध की स्वचेतना को भी। वे विचारधाराओं के बीच केवल चहलकदमी नहीं करतीं, बल्कि उसके जीवनसापेक्ष सार्थक को वैचारिकी में लाती हैं। भीड़ के आक्रोश में केवल बहुमत को नहीं देखती, बल्कि राजनैतिक निहितार्थों से अलग जन-संवेदन के करुण- पक्ष को साझा करती हैं। इसीलिए टर्निंग पाईट' के साथ विवेक की पक्षधरता इन चिंतनाओं के मूल में है।
         इन निबंधों का खुला आकाश हमारे सोच का अनेकान्त है ।यह बन्द गलियों का आरवरी मकान नहीं बनता, बल्कि उसे ध्वस्त कर नये रास्ते का सोच बनाता है। लेखिका के पास वर्तमान का कोलाहल है, पर अतीत निरपेक्ष नहीं' । सांस्कृतिक मूल दृष्टि है, पर वर्तमान के संजीवन के लिए। समर्थ भाषा है, जो कई विद्वानों के विचारों से जुड़ती-टकराती हुई पाठक को भी नया धरातल देती है। इन निबंधों का स्वागत होगा, जागरण के नये अध्याय के रूप में। और  मानवता के पोषक भविष्य की चिंतना के रूप में।
बी. एल .आच्छा
********'समकाल के नेपथ्य में' पढ़ने के इच्छुक  सभी सुधी पाठकों के लिए शीघ्र ही यह अमेजन ( Amazon) पर उपलब्ध होगी | ********
 


समकाल के नेपथ्य में --हिंदी साहित्य की सुपरिचित लेखिका सत्य शर्मा कीर्ति  जी  की टिप्पणी ---

साहित्य जगत की सशक्त हस्ताक्षर प्रिय मित्र शोभा जी आज किसी परिचय की मोहताज नहीं है ।जहां एक तरफ वो अग्निधर्मा समाचार पत्र का कार्य सुचारू रूप से करती हैं वहीं गम्भीर आलेख और निबंध के लिए भी जानी जाती हैं।

किताबों की समीक्षा करनी हो या संपादन का कार्य। हर कार्य में उनकी निपुणता सहज ही दिखती है।

गंभीर गद्य लेखन के बावजूद उनके अंदर एक संवेदनशील स्त्री हमेशा ही सजग रहती है जिसकी छाप उनकी कविताओं में हम अक्सर ही देखते हैं।

तभी तो स्वस्तिकामनाएँ में आदरणीय डॉ. विकास दवे सर लिखते हैं.... " मुझे कई बार उनकी लेखनी से ईर्ष्या भी होती थी। " ( निदेशक , साहित्य अकादमी , भोपाल )

सच कहूं तो मैं कई बार अचंभित हो जाती हूँ उन्हें भी चौबीस घण्टे ही मिलते हैं या भगवान कुछ घण्टे उन्हें छुपा कर अलग से दे देते हैं ।

कोई व्यक्ति कैसे विभिन्न विषयों , विभिन्न विधाओं पर एक ही वक्त में इतना काम कर सकता है ।

इन सब बातों के अलावे जो एक सबसे अच्छी बात है , वह यह है कि शोभा जी एक बहुत ही नेकदिल , मृदुभाषी , प्यारी और अच्छी दोस्त हैं। उन्होंने मुझे ऐसे वक्त में थमा था जब मुझे सच में किसी एक मजबूत दोस्त की जरूरत थी।

तब हम सिर्फ फ्रेंड लिस्ट में थे शायद ही एक दूसरे की वॉल पर जाते थे किन्तु मुझे परेशान देख कर जिस तरह उन्होंने ने मेरा हाथ थामा और दूर बैठ कर भी गले लगा लिया था । वह मेरे लिए अविस्मरणीय है। मैं तो उन्हें ईश्वर द्वारा भेजा कोई दूत या पिछले जन्मों का कोई साथ ही मानती हूँ और दुआ करती हूँ हमारी दोस्ती को किसी की भी नजर न लगे।

किताब में लगभग  55 निबंध है जिसमें अपने समय का  शायद ही कोई विषय अछूता रहा हो|  ये निबंधों के  शीर्षकों से ज्ञात होता है साथ ही साथ आदरणीय प्रो बी.एलआच्छा सर की भूमिका से उसे विस्तार देता  है | ऐतिहासिक पत्रिका वीणा के सम्पादक श्री राकेश शर्मा  जी ने सही लिखा है उनके  लिए --''इस किताब में संकलित निबंध उनके भीतर चल रहे वैचारिकी युद्ध की गवाही देते हैं  किताब कई मायनों में महत्वपूर्ण है |'' शीघ्र ही पूरा पढ़कर लिखूंगी |

सुंदर अक्षरों वाली प्यारी दोस्त मैं जानती हूँ लेखक चाहे कितनी भी पत्रिकाओं में छप जाए पर असली खुशी तो अपनी किताब को छूने पर ही होती है ।आपको यह खुशी बहुत - बहुत मुबारक हो

आपको ढेरों 

बधाई 


ईश्वर से प्रार्थना है आप यूँ ही लिखती रहें और हम सभी पढ़ते रहें ।

सत्या

13/01/2022

 


समकाल के नेपथ्य में --हिंदी साहित्य के  सशक्त हस्ताक्षर डॉ.मुरलीधर चाँदनीवाला   जी  की टिप्पणी 

दायित्व हमारे भी कुछ कम नहीं
~~~~~~~~~~~~~~~~~
एक अच्छा निर्देशक और सूत्रधार ठीक समय पर अपने पात्र को नेपथ्य से बाहर लाता है। समय का चुनाव उसका अपना होता है, और वही तय करता है कि उसके पात्र की वेशभूषा क्या होगी, उसके संवाद क्या होंगे। एक अच्छा लेखक और साहित्यकार इस सूत्र को समझता है। वह अपनी लेखनी को थामे हुए जो सोचता है, विचार करता है, वह नेपथ्य में चल रही उथल-पुथल को उस मंच पर लाने के लिये होता है, जहाँ की दीर्घा सुधीजनों से आबाद है।
डाॅ. शोभा जैन की पुस्तक 'समकाल के नेपथ्य में' भले ही उनकी प्रथम कृति हो, लेकिन उनके पाठक भलीभाँति जानते हैं कि वे लम्बे समय से समकाल के नेपथ्य से हमारे समय के चरित्रों को उजागर करने का जोखिम उठाती रही हैं। वे उसकी तैयारी बहुत शालीनता और अनूठे तरीके से करती हैं। वे न केवल कृतज्ञ लेखिकाओं की श्रेणी में आती हैं, अपितु बिना किसी उत्तेजित स्वर और विरोध के बावजूद अपनी बात को पूरी सामर्थ्य से मंच पर ले आती हैं।
उन्होंने अपनी इस महत्वपूर्ण कृति के 'मनोगत' में एक छोटा सा सूत्र दिया है-' हर समकाल का एक नेपथ्य होता है। उसके बाहर आने की छटपटाहट ही खाली कागज़ों का जीवन भर देती है।' यह खाली कागज़ों का जीवन है, इसीलिए आशाओं से भरा है। यह जीवन है, इसीलिए इसमें विचारों की वह मस्ती है, वह उमंग है, जो हमें जीवन का राग सुनाती है। डाॅ. शोभा जैन के ' समकाल के नेपथ्य में' चुने हुए वे चौपन निबंध संकलित हैं, जो पूर्वपठित होकर भी नयी ताजगी देते हैं, कुछ प्रश्न खड़े करते हैं, कुछ हमारी जड़ता को तोड़ते हुए हमें खुली हवा में ले आते हैं।
डाॅ. शोभा जैन हिन्दी साहित्य की गम्भीर अध्येता हैं। समालोचना के उनके अपने सिद्धांत हैं, अपनी बारीकियाँ हैं। सबसे अच्छी बात यह है कि वे दुनिया को एक ही चश्मे से नहीं देखती, न वे किसी निश्चित् विचारधारा से बंधी हुई हैं। वे पाठकों को इसलिये प्रिय हैं, क्योंकि उनका अंतरंग और बहिरंग एक है, उनके निष्कर्ष तक पहुँचने के सब रास्ते अलग-अलग होकर भी एक जगह जाकर मिलते हुए प्रतीत होते हैं। पत्रकारिता के क्षेत्र में दखल रखने वाले के लिये यह सहज नहीं है, लेकिन डाॅ. शोभा जैन के यहाँ यह सब सहज है।
डाॅ. शोभा जैन का ' समकाल के नेपथ्य में' उस समय आया है, जब समकाल के नेपथ्य में पल-पल ऊँच-नीच है, घट-बढ़ है, तमाशा है, हाथापाई है, गुस्सा है, यंत्रणा है और अजीब किस्म का शोषण है। सज्जन और बुद्धिजीवी समझे जाने वाले आबालवृद्ध निष्क्रिय बने हुए हैं, और दुर्जन पूरी सतर्कता के साथ बुद्धिजीवी होने का ढोंग करते हुए बेहद सक्रिय बने हुए हैं। डाॅ. शोभा जैन हमारे बीच हमारी जवाबदार प्रतिनिधि के रूप में है। उनकी आँखों से हम देख पा रहे हैं कि समकाल के नेपथ्य में आखिर क्या चल रहा है। इसके बाद के दायित्व हमारे भी कुछ कम नहीं। लेखक अपने अग्निधर्म का निर्वाह करता हुआ हमें रास्ता दिखा सकता है, किन्तु चलना तो हमें ही है।
मुरलीधर --

 



 समकाल के नेपथ्य में --हिंदी साहित्य के  सशक्त हस्ताक्षर डॉ.पिलकेंद्र  अरोरा  जी  की टिप्पणी 

कोई व्यंग्य -संग्रह होता तो समीक्षा की आदर्श परम्परा के अनुसार आवरण -अनुक्रम देख कर समीक्षा कर डालता! पर यह तो 'द्विवेदी युग' जैसे गंभीर -चिंतनपरक निबंधों का  संग्रह है! सो अंतरात्मा जगी और समीक्षक सहमा! लगा कि तैर कर समीक्षा संभव नहीं, डूबना ही पड़ेगा! फिर लेखिका का संबंध एक अखबार से है और मुझे अग्नि से बहुत डर लगता है....! इसलिए समीक्षा अभी जारी है!

एक स्थगित समीक्षा....!

एक शब्द है माया, जिसके जाल में हम प्रायः उलझ जाते हैं। माया के कारण जो सत्य है ,वह असत्य लगता है और जो असत्य है ,वह सत्य ..! विश्व के रंगमंच पर जो भी दृश्य है माया है ,असत्य है ,भ्रम है,भ्रांति है.!

यथार्थ और सत्य तो सदा नेपथ्य में ही रहा है। ‘समकाल के नेपथ्य में’ लेखिका डा. शोभा जैन ने आज के विषमकाल के उन सत्यों का चित्रण किया है जिसका संबंध समय और समाज से है। धर्म, समाज, राजनीति, शिक्षा ,भाषा, साहित्य आदि क्षेत्रों की विसंगतियां उन्हें विदग्ध करती हैं और परिवेश में परिवर्तन के लिए वे अग्निधर्मा हो जाती हैं। 

भावना प्रकाशन नईदिल्ली द्वारा प्रकाशित पुस्तक का आकर्षक आवरण, प्रभावी शीर्षक, कलेवर , साज-सज्जा, श्रेष्ठ कागज ,सुंदर मुद्रण ज़हां पुस्तक का बाह्य सौंदर्य है ,वहां 183 पृष्ठों में संकलित 55 चिंतनपरक निबंधों में विचार और अनुभूति का अद्भुत आंतरिक सौंदर्य है।

अपनी 'नई सरल समीक्षा गाइड' के आधार पर मैं पुस्तक की बैठे -ठाले समीक्षा ठोक देता ,पर संग्रह के निबंध 'हिंदी साहित्य समाज के हाशिए पर क्यों?' ने मुझे एक साहित्यिक अपराध से बचा लिया। इस निबंध में लिखा है कि इस समय साहित्य में शब्दों का खेल खूब खेला जा रहा है। शुद्ध समीक्षक आलोचक कम हैं और उनकी स्थिति दयनीय है।समीक्षा कालम औपचारिक बन कर रह गया है। समीक्षक गंभीर नहीं हैं। वे पुस्तक के आकार ,पृष्ठ संख्या, प्रकाशक, मूल्य , पुराने प्रकाशनों के उल्लेख के साथ समीक्षा की इतिश्री कर लेते हैं!

 निबंधकार की चिंता है कि हिंदी में प्रतिवर्ष प्रकाशित16000 पुस्तकों में 16 ही श्रेष्ठ होती हैं और उन 16 का भी सही मूल्यांकन न होना साहित्य को हाशिए पर धकेलता है। इस समय भाषा बीमार है। विचार अवकाश पर है। चिंतन सीमित है

इस निबंध को पढ़कर मैंने फटाफट समीक्षा का विचार त्याग दिया । पता नहीं भाषा कब स्वस्थ होगी! विचारों का अवकाश कब समाप्त होगा! फिर कहीं मेरी कथित समीक्षा भी माया की तरह असत्य न हो... ! साहित्य के रंगमंच पर वह शब्दों का अभिनय मात्र न बन जाए...! अतः क्यों न कुछ समय - काल के बाद 'समकाल के नेपथ्य में 'प्रवेश कर उसके सत्य को प्रस्तुत किया जाए! इसलिए समीक्षा स्थगित  ...! पर  रिहर्सल जारी है......!

 Pilkendra Arora


समकाल के नेपथ्य में --हिंदी साहित्य के  सशक्त हस्ताक्षर डॉ.मुरलीधर चाँदनीवाला   जी  की टिप्पणी 

दायित्व हमारे भी कुछ कम नहीं
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एक अच्छा निर्देशक और सूत्रधार ठीक समय पर अपने पात्र को नेपथ्य से बाहर लाता है। समय का चुनाव उसका अपना होता है, और वही तय करता है कि उसके पात्र की वेशभूषा क्या होगी, उसके संवाद क्या होंगे। एक अच्छा लेखक और साहित्यकार इस सूत्र को समझता है। वह अपनी लेखनी को थामे हुए जो सोचता है, विचार करता है, वह नेपथ्य में चल रही उथल-पुथल को उस मंच पर लाने के लिये होता है, जहाँ की दीर्घा सुधीजनों से आबाद है।
डाॅ. शोभा जैन की पुस्तक 'समकाल के नेपथ्य में' भले ही उनकी प्रथम कृति हो, लेकिन उनके पाठक भलीभाँति जानते हैं कि वे लम्बे समय से समकाल के नेपथ्य से हमारे समय के चरित्रों को उजागर करने का जोखिम उठाती रही हैं। वे उसकी तैयारी बहुत शालीनता और अनूठे तरीके से करती हैं। वे न केवल कृतज्ञ लेखिकाओं की श्रेणी में आती हैं, अपितु बिना किसी उत्तेजित स्वर और विरोध के बावजूद अपनी बात को पूरी सामर्थ्य से मंच पर ले आती हैं।
उन्होंने अपनी इस महत्वपूर्ण कृति के 'मनोगत' में एक छोटा सा सूत्र दिया है-' हर समकाल का एक नेपथ्य होता है। उसके बाहर आने की छटपटाहट ही खाली कागज़ों का जीवन भर देती है।' यह खाली कागज़ों का जीवन है, इसीलिए आशाओं से भरा है। यह जीवन है, इसीलिए इसमें विचारों की वह मस्ती है, वह उमंग है, जो हमें जीवन का राग सुनाती है। डाॅ. शोभा जैन के ' समकाल के नेपथ्य में' चुने हुए वे चौपन निबंध संकलित हैं, जो पूर्वपठित होकर भी नयी ताजगी देते हैं, कुछ प्रश्न खड़े करते हैं, कुछ हमारी जड़ता को तोड़ते हुए हमें खुली हवा में ले आते हैं।
डाॅ. शोभा जैन हिन्दी साहित्य की गम्भीर अध्येता हैं। समालोचना के उनके अपने सिद्धांत हैं, अपनी बारीकियाँ हैं। सबसे अच्छी बात यह है कि वे दुनिया को एक ही चश्मे से नहीं देखती, न वे किसी निश्चित् विचारधारा से बंधी हुई हैं। वे पाठकों को इसलिये प्रिय हैं, क्योंकि उनका अंतरंग और बहिरंग एक है, उनके निष्कर्ष तक पहुँचने के सब रास्ते अलग-अलग होकर भी एक जगह जाकर मिलते हुए प्रतीत होते हैं। पत्रकारिता के क्षेत्र में दखल रखने वाले के लिये यह सहज नहीं है, लेकिन डाॅ. शोभा जैन के यहाँ यह सब सहज है।
डाॅ. शोभा जैन का ' समकाल के नेपथ्य में' उस समय आया है, जब समकाल के नेपथ्य में पल-पल ऊँच-नीच है, घट-बढ़ है, तमाशा है, हाथापाई है, गुस्सा है, यंत्रणा है और अजीब किस्म का शोषण है। सज्जन और बुद्धिजीवी समझे जाने वाले आबालवृद्ध निष्क्रिय बने हुए हैं, और दुर्जन पूरी सतर्कता के साथ बुद्धिजीवी होने का ढोंग करते हुए बेहद सक्रिय बने हुए हैं। डाॅ. शोभा जैन हमारे बीच हमारी जवाबदार प्रतिनिधि के रूप में है। उनकी आँखों से हम देख पा रहे हैं कि समकाल के नेपथ्य में आखिर क्या चल रहा है। इसके बाद के दायित्व हमारे भी कुछ कम नहीं। लेखक अपने अग्निधर्म का निर्वाह करता हुआ हमें रास्ता दिखा सकता है, किन्तु चलना तो हमें ही है।
मुरलीधर --
 

समकाल के नेपथ्य में --हिंदी साहित्य की सशक्त लेखिका चित्रा मुद्गल जी की टिप्पणी 


 


  समीक्षा -- जनवरी 2022 ऐतिहासिक पत्रिका वीणा के अंक में मेरी समीक्षा यात्रा संस्मरण 



 

दैनिक स्वदेश में प्रति रविवार स्तंभ का लेख