Thursday, October 19, 2023

 समकाल के नेपथ्य में (निबंध संग्रह )पर मेरा मनोगत 


 मनोगत



वैसे तो हरेक सामाजिक घटना में हमारी दृष्टि  और समझ को एक नयी  सतह पर ले जाने की क्षमता छिपी रहती है,पर जिंदगी का प्रवाह अक्सर यह मौका नहीं देता कि  हम इस क्षमता का पूरा लाभ उठा सकें | ज्यादातर घटनाएँ  अपने वक्त की जटिल ज्यामिति  को छिपाये ही हमारी याददाश्त की साप्ताहिक और मासिक हदें पार कर  जाती हैं | और हमें अपनी समझ और सम्वेदना  के पुराने धरातल पर छोड़ देती है | कुछ घटनाएं ही हमें धक्का देते हुए इस बात की संभावनाएं पैदा  कर  देती है कि हम विवश होकर बिना किसी पशोपेश के उन्हें जीवन की किसी भी विधा में  उकेर दें | यही मेरे मानस के साथ भी हुआ इसलिए मेरा शुरू से विश्वास रहा लेखन कभी भी शौक से नहीं विवशता से जन्मता है | अनवरत सोद्देश्यता और जवाबदेही के कठोर साँचों  में छुटपन से ही बंध जाना लड़कियों को समाज में स्वीकृत यानी पूरी तरह भूमिकाबद्ध जीवन जीने का पूर्वाभ्यास भी कराता है | यही मेरे लिए भी सुनिश्चित हुआ |लड़कियों के लिए  इस पूर्वाभ्यास में जरा सा भी चूक जाना किसी अपराध की तरह माना जाता है यह भी जीवन के साथ जुड़ा और  यह एक  बंध  से एक बांध कब बनता चला गया पता नहीं चला |इस तरह   जीवन और लेखन दोनों के मध्य का  स्वप्न सेतु बनता चला गया | यह भी कि  हमारे लिए विधा  चयन हमारी भीतरी प्रकृति करती है | विचार के क्षणों में मेरे मानस में गद्य ही आकार लेता है | यह इसलिए भी कि उसमें अपनी अनुभूति  के साथ बाह्य विश्लेषण के लिए भी पर्याप्त अवकाश मिलता है | पहला निबंध एक लेख के रूप में कक्षा छटवीं में लिखा था जब जीवन की वास्तविकता से बहुत दूर थी | स्वभाव से अन्याय विरोधी ही नहीं असहिष्णु हूँ जीवन में इस स्वभाव के बड़े परिणाम भुगते हैं जो स्वाभाविक है इसलिए सुधि पाठकों को इन आलेखों में  कहीं -कहीं उग्रता की गंध भी महसूस हो सकती है  | बावजूद इसके नि बंध के इन मुक्त विषयों से गुजरना हर बार मेरे लिए किसी परीक्षा में बैठने जैसा ही अनुभव है | जैसे जीवन में निभाई विविध भूमिकाएं हमें जीवन में अग्रसर होने का संकेत देती है ठीक वैसे ही  यह भूमिका भी कुछ चिन्ह जरूर अंकित करती है| कैसे एक शब्द शीर्षक बनकर फूट पड़ता है | यह सब अचानक से नहीं होता शब्दों के नेपथ्य में हमारे समकाल की सुगबुगाहट बनी रहती है हर समकाल का एक नेपथ्य होता है  | उसके बाहर आने की छटपटाहट ही खाली कागजों का जीवन भर देती है | 


प्रकृति ने मेरा चयन मूलतः गद्य के लिए किया| अध्ययन में मेरा  आकर्षण  आलोचना/समीक्षा की ओर ही रहा |इन्हीं विधाओं के सांचे में ढलता कच्चा अनुभव और जीवन कितनी घटनाओं का साक्षी बना  |लेकिन वे ही  घटनाएँ हमें लिखने के लिए प्रेरित करती हैं जो हमारी भावनाओं ,मूल्यों  और मान्यताओं को स्वर देती हैं |निजता से परे जाकर जन समाज के व्यापक संदर्भ जब इनसे जुड़ते हैं तभी लेखन अर्थवान लगता है |अध्ययन की जिस प्रक्रिया से अथवा विधा से हम बार बार गुजरते हैं उसे स्वभावतः आत्मसात करने लगते है मेरा लेखन ‘परि’ स्थितियों के साथ इसी परिवेश से प्रेरित है | किसी घटना अथवा परिस्थिति को कईं  एंगल से देखने की आदत है ।कईं बार उसकी पैरवी करते हुए पक्ष में | कभी अपने ही विचारों को अस्वीकृति के कटघरे में पाया | विचारों के इसी 'कच्चेपन' के बावजूद  खाली डायरियों  के जीवन को भरा | अब वो कच्चापन बाहर झांकने लगा हैं साहित्यिक पत्र -पत्रिकाओं में प्रकाशन के साथ सामयिक विमर्श और बहसों का हिस्सा  बना तो  लगा कच्चेपन में भी स्वाद होता है |


डॉ शोभा जैन 

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