मेरा लेख प्रजातंत्र में
इन आँखों ने देखे हैं, नए साल कई
कैलेंडर का एक पेज नष्ट होने के बाद नया पेज खुलता है जिस पर नया महीना अंकित होता है। ये महीने मौसम की चाल के साथ कदमताल करते हुए प्रतीत होते हैं कील पर इन बदलावों का कोई असर नहीं पड़ता.| .कैलेंडर बदलने से न तो भाग्य बदलता है न स्वभाव., दोनों उस कील की तरह हैं, जिस पर कैलेंडर के पेज फड़फड़ा जाते हैं।आँगन में जाड़े की बतियाती दोपहरें नसीब होती रहें शाम होते ही पंछी अपने घोंसलों में लौट सके और क्या चाहिए बेगानेपन के बरक्स एक नई प्रत्याशा|
दुर्भाग्य से बिलकुल फुटपाथ पर बैठने वाले ज्योतिषी की तरह हर कोई इन दिनों अपने आपको भविष्यवेत्ता मान बैठा है राजनीतिक विश्लेषक या सामाजिक कार्यकर्ता, कुछ नहीं तो पत्रकार बनकर भविष्य को खबरों में समेटा जा रहा | रेत की तरह फिसलते समय में न तो कोरोना किसी की हाथ की रेखाओं में दिखाई दिया, न वो सारे घोटाले जो बीते वर्ष की सुर्ख़ियों में थे | लेकिन गुजरे सभी इसी से| ऐसा ज्योतिषशास्त्र सम्भवतः पहली बार देखने में आया | सम्भवतः जनता भी अब मंथरा वाली उसी मानसिकता की शिकार हो गई है जिसका जिक्र कभी प्रभाष जोशी जी ने किया था ''मंथरा दासी से रानी नहीं हो सकती थी चाहे जो राजा हो जाए इसलिए कौन राजा होता है और कौन नहीं इसकी उसे क्या फिकर होती?लेकिन लोकतंत्र में मंथरावाला रवैया रखना तो एकदम गलत है|
पिछले कुछ वर्षों से देश का माहौल ऐसा बन गया है कि धर्मनिरपेक्षता और धर्माधता पर विचारों का टकराव एक नया तूफान खड़ा कर रहा है। सभा-गोष्ठियों, परिसंवायें में धर्मनिरपेक्षता की प्रक्रिया को उजागर करने के लिए हिंदी साहित्य पर छन्नी डाली जा रही है। छन्नी से छनकर जो तत्व निकल रहा है वह प्रमाण दे रहा है कि धर्मनिरपेक्षता एक ऐसा प्रत्यय है जिसे परिभाषित नहीं किया जा सकता। धर्म की सीमा कभी संकुचित हो जाती है कभी विस्तृत। इसमें ऐतिहासिक समय और मानवीय समय अलग-अलग अर्थ संदर्भ ग्रहण करता है और बनी-बनाई भावनाओं के साँचे टूटकर नए आकार ग्रहण कर लेते हैं।
जबकि जमीनी हकीकत है हमने घरों में झांका नहीं, न झांकना चाहते हैं खबरें केवल वही जिनका सीधा सरोकार पार्टी या दल से है भोगे जा रहे सच आज भी कलम में उतरने का साहस नहीं कर पा रहे | और हम कह रहे साल नया है| इस नए में बदलेगा क्या ?सुनवाई के लिए कई अहम फैसलें फाइलों में कैद, अदालतें आज भी बंद है, चुनाव की रैलियों सभाओं को छूट, पुस्तकालय बंद, विद्यालय बंद, नौकरी से निकाले जा चुके तमाम निर्भर जिंदगियों का क्या जिसे राजनीतिक सुर्ख़ियों से कोई वास्ता नहीं, मंथरा की तरह सोच से जन्में आम आदमी के लिए राजा कोई भी हो, ताज किसी के भी सर हो उन्हें जीवन की सुरक्षा चाहिए जो बदला हुआ साल दे सके |
बदलाव साल का हो या तारीखों का वास्तव में बदलता क्या है ? परिवर्तन की कुलबुलाती आकांक्षा में जीवन की कशमश और मनुष्य की पीड़ा भी प्रतिध्वनित होती है।हमारी तकलीफें और जिजीविषा इस बदलाव के साथ आगे बढ़ जाती अपना स्वरूप बदलती है।कभी-कभी कोई छूटा हुआ तीर दुखों को भेदते हुए निकल जाता है ।लेकिन समय की प्रत्यंचा पर वह अभेद्य ही बना रहा है।
दुनिया का हर व्यक्ति स्वतंत्रता को मनुष्य होने की पहली शर्त मानता आया है और सम्भवतः उसके हरण से अधिक त्रासद उसके लिए कुछ भी नहीं ।लेकिन क्या मनुष्य उस पत्थर की तरह हो सकता है जो चारों तरफ से नदी की धारा से घिरा है अकेला है फिर भी अपनी सत्ता में स्वतंत्र है।
देश के चारों ही स्तम्भ से बहुत अपेक्षाएँ हैं ज्वलंत विषयों को लेकर सुचिंतित विश्लेषण, एक समांतर सामाजिक हस्तक्षेप के साथ हम देख सकेंगे उम्मीद करते हैं क्योकि कोई भी अर्थपूर्ण प्रक्रिया बिना विश्वएसनीयता के सम्भव नहीं| साल कोई भी हो नौकर का मालिक पर, जनता का सत्ता पर,विश्वास के भरोसे ही है | निजी आस्था ओं और उसकी सार्वजनिक निष्ठा ओं को साधे बिना विरोध की खाई नहीं भरी जा सकती फिर कितने ही उत्सव और जश्न मना लें |
पूरा मीडिया हर साल समस्या से जूझता है अखबारों और खबर चैनल के उम्मीदवारों और पार्टियों से काला धन लेकर विज्ञापनों और प्रचार सामग्री को खबर बना कर कैसे छापें और प्रसारित करें जिससे यह काला धंधा गति पकड़े| चुनाव हो या या कोई अप्रत्याशित घटना उससे जन्मी बुनियादी समस्याएं, इस पूरी इबारत के बीच क्या था जो न तो खुलकर लिखा गया न सामने लाया गया |संकट से गुजरने के जुमले जरूर दोहराए जाते हैं साल बदल जाता है | सत्ता में कहीं कोई बैचेनी नहीं दिखती | कोरोना ने जीवन के कितने साल पीछे कर दिया हम उसे भूला चुके है जो खोया उसकी भरपाई आज भी न हुई है और हम उत्सवप्रिय भारत का एक वर्ग नए साल के जश्न में फिर डूबा |
डॉ शोभा जैन, इंदौर
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