Thursday, January 18, 2024

समालोचना  स्तंभ' के तहत नई धारा में मेरे निबंध संग्रह 'समकाल के नेपथ्य मेंपर विस्तृत समीक्षा नर्मदा प्रसाद उपाध्याय जी द्वारा  लिखित 






समालोचना  स्तंभ' के तहत मेरे निबंध संग्रह 'समकाल के नेपथ्य में' पर   नर्मदा प्रसाद उपाध्याय जी द्वारा  लिखित  महत्वपूर्ण  समालोचना नये वर्ष  में 'नई धारा' पत्रिका का हिस्सा बनी| 
 साहित्यिक पत्रकारिता के शीर्ष पर विराजित 'नई धारा' का प्रकाशन अप्रैल 1950 से आरंभ हुआ अब तक निरंतर है ।अपने समय और विरासत से संवाद की महत्वपूर्ण पत्रिका में  प्रकाशित समालोचना  आप सभी के अवलोकनार्थ सादर 
आभार नई धारा समूह 
मूलपाठ कुछ अंश 
समकाल के नेपथ्य: एक उज्जवल भोर-
शोभा के द्वारा रचे गए ये निबंध जिनमें अनेक आलेख भी शामिल हैं इस तथ्य की गवाही देते हैं कि किसी पहले राहगीर ने बड़े विश्वास और साहस के साथ इस पथ पर अपने पांव आगे बढ़ाए हैं। ‘समकाल के नेपथ्य’ में जो निबंध और आलेख सम्मिलित हैं वे इस तथ्य के साक्षी हैं कि एक सजग रचनाकार ने अपने युग के स्पंदनों को सुना है और फिर इन स्पंदनों को उन्होंने शब्दरूप में परिणत कर सम्प्रेषणीय ढंग से लोक के समक्ष प्रस्तुत कर दिया है। 
प्रस्तुत कर दिया है। 
 प्रख्यात चिंतक, व्यंग्यकार और समीक्षक प्रो. बी.एल. आच्छा ने यह बहुत सच लिखा है कि हमें सिद्धि तभी मिलती है जब अतीत का नवनीत मार्गदर्शी हो तथा विचारधाराएं जीवनप्रवाह की सततता को नवोन्मेषी बनाती हों और डॉ. शोभा जैन के इस वैचारिक अनुष्ठान में यही जीवनदृष्टि है, जो न तो अतीत-राग और न विचारधाराओं के संकरीले प्रवाह से बंधी है बल्कि वे समकाल के नेपथ्य में मुखर प्रतिध्वनियों को हाशिए से निकालकर मुखपृष्ठ पर लाती हैं। उनका यह कहना भी अपने स्थान पर बड़ा सटीक है कि इस संकलन के निबंधों का खुला आकाश हमारे सोच का अनेकांत है। 
 डॉ. शोभा जैन ने अपनी कृति के संबंध में विस्तार से अपनी स्थिति स्पष्ट करते हुए अपने दृष्टि को प्रस्तुत किया है। अपने लेखन प्रक्रिया के संबंध में उन्होंने लिखा है कि सब कुछ अचानक नहीं होता। शब्दों के नेपथ्य में हमारे समकाल की सुगबुगाहट बनी रहती है। हर समकाल का एक नेपथ्य होता है। उसके बाहर आने की छटपटाहट ही खाली क़ाग़ज़ों का जीवन भर देती है। वे यह भी मानती हैं कि प्रकृति ने उनका चयन मूलतः गद्य के लिए ही किया है। इस संग्रह में कुल 55 आलेख और निबंध सम्मिलित हैं जिनके बारे में बड़े विस्तार से चर्चा की जा सकती है किंतु इन निबंधों के विषय बड़े मौलिक हैं तथा लेखिका की दृष्टिसम्पन्नता और अपने युग के प्रति अपनी प्रतिबद्धता की ओर इंगित करते हैं। उनकी दृष्टि का विस्तार अपरिमित है। इन निबंधों और आलेखों के विषय विविध हैं और वे अपने समय का तो प्रतिनिधित्व करते ही हैं अपने अतीत के संबंध में भी उसकी उज्जवलता और प्रखरता को हमारे समक्ष प्रस्तुत करते हैं। उनकी दृष्टि की व्यापकता का अनुमान इसी से किया जा सकता है कि पहले दो निबंध ही मनुष्यता का उद्घोष करते हैं और वे मनुष्यता के जीवन मूल्यों को परिभाषित करते हुए व्यक्ति के विश्व रूप में रुपांतरण की उद्घोषणा करते हैं। 
 इतिहास की सिद्धि और भविष्य से लेकर लोकतंत्र, साहित्यिक संदर्भ, उत्तर आधुनिकता, निराला और मुक्तिबोध तथा शब्दों से लेकर हिन्दी की वैश्विक स्थिति व कोरोना जैसी महामारी के विषय उनके लेखन की परिधि में आते हैं। वे बड़े सारगर्भित रूप में अपनी दृष्टि को प्रस्तुत करते हैं। उनके पहले निबंध ‘नयी विश्व व्यवस्था: मनुष्य से मानव की ओर, व्यक्ति से विश्व की ओर’ में वे कहती हैं, ‘धर्म, मानव की एक चिति है। चेतना जो संस्कृति का प्रथम सोपान है, जो उसे सभ्यता की ओर ले जाता है। समग्रतः जो हमें विकृतियों से बचाए वो धर्म है।’ इस संदर्भ में मुझे आचार्य तुलसी याद आते हैं जिनकी प्रख्यात कृति है ‘क्या धर्म बुद्धिगम्य है?’ और वे अपनी इस कृति में कहते हैं कि मनुष्यता धर्म का सार है, धर्म का आशय रुढ़ि नहीं है। वे कहते हैं कि धर्म के प्रचार के लिए सम्प्रदाय बने लेकिन कालांतर में सम्प्रदाय प्रमुख हो गए और धर्म गौण।
 इतिहास की सिद्धि को लेकर उनका यह कहना भी सच है कि इतिहास की जानकारी मनुष्य के भविष्य के निर्माण के लिए होना चाहिए और यह केवल संग्रहालयों की शोभा बढ़ाने वाला विषय नहीं अपितु सभ्यताओं और संस्कृति के पुनर्सृजन करने का भी विषय है। 
 उन्होंने लोकतंत्र और आज की राजनीति को लेकर भी अपने विचार व्यक्त किए हैं। वे प्रायः आलेखों के रूप में है जिनमें लोकतंत्र के संबंध में उन्होंने व्याख्या की है। 
 साहित्यिक विषयों पर उनके निबंध गूढ़ रूप में हैं तथा समकालीनता, समसामयिकता और आधुनिकता को लेकर उनमें विचारपरक सामग्री समाविष्ट की गई है। उन्होंने निराला और मुक्तिबोध की काव्य सामर्थ्य पर विचार किया है तथा यह सच लिखा है कि साहित्य को किसी साधना या तप की तरह जीने वाले संत साहित्यकार, साहित्य के प्रति वास्तविक आस्था और उसके आचरण के संस्कार को गति दें। शायद तभी कह सकेंगे कि साहित्य में कभी अवकाश नहीं होता। 
 दर्द और स्त्री को लेकर उन्होंने विस्तार से अपनी चिंताओं को मुखरित किया है तथा उन्होंने यह महत्वपूर्ण तथ्य रेखांकित किया है कि पुरुषवादी वर्चस्व की सत्ता स्त्री को हाशिए पर फेंकती है और वही सत्ता अपने समाज के भीतर और बाहर उपनिवेशीकरण के विविध रूप गढ़ती है। उन्होंने एक ज्वलंत विषय जो हमारे आम विमर्श का विषय है, को भी स्पष्ट किया है तथा ‘आधुनिकता बनाम परंपरा’ शीर्षक आलेख में हमारे आज के युगबोध और परंपराओं पर विचार करते हुए यह सटीक निष्कर्ष दिया है कि परंपराओं के अध्ययन ही नहीं पुनरावलोकन के आधार पर ही आधुनिकता के मानकों के ज़रिये युगबोध को मापना संभव है। वे साहित्य में मॉबलिंचिंग की भी चर्चा करती हैं और पुस्तकों के प्रकाशन को लेकर एक यथार्थपरक स्थिति भी निर्मित करती हैं। वे यह निष्कर्ष देती हैं कि दुष्यंत कुमार, नागार्जुन ने साहित्य की मॉबलिंचिंग को स्पर्श किया है। 
 ‘हिन्दी साहित्य समाज के हाशिए पर क्यों?’ इस निबंध में वे इस प्रश्न का उत्तर खोजती हैं। उनका मानना है कि नई पीढ़ी को इस प्रश्न का सार्थक उत्तर अपनी तपोनिष्ठ साधना के माध्यम से देना होगा। गांधी को लेकर भी वे अपनी दृष्टि से चर्चा करती हैं। उनका मानना है कि इच्छाओं की मृत्यु के साथ यदि ज़िन्दा रहने का सम्मोहन हम रख पाएं तो गांधी के मार्ग पर चला जा सकता है। वे किसानों की चर्चा करती हैं और उनकी यह चिंता है कि यदि किसानों की दशा और दिशा पर प्राथमिकता से विचार नहीं किया गया तो कृषक शब्द ही हमारे शब्दकोश से विलुप्त हो सकता है। एक आलेख में वे लोकतंत्र और बहुसंख्यकता के विभेद को स्पष्ट करती हैं और एक निबंध सियासत के ज़ख्म और उसके दर्द से कराहती दिल्ली पर है जिसमें दंगों के कारण दिल्ली की कारुणिक अवस्था को शब्दरूप में अभिव्यक्त किया गया है। 
 वे अंतिम आदमी तक लाभ पहुंचाने को लेकर भी अपने विचार व्यक्त करती हैं। उल्लेखनीय है कि पं. दीनदयाल उपाध्याय ने इस संबंध में एक विस्तृत अवधारणा भी प्रतिपादित की। वे अपने ढंग से कोरोना के लॉकडाउन के परिप्रेक्ष्य में विचार करते हुए कहती हैं कि सेवा का स्थान अधिकारों को सौंपकर तथा त्याग को भोगवृत्ति में धूमिल कर हमारे सत्व को जिस तड़क भड़क ने ग्रस लिया है यदि इस आवरण को मिटाया जा सका तो अंतिम आदमी का जीवन, वास्तव में जीने योग्य हो सकेगा। वे त्यौहारों को लेकर तथा उन अवसरों पर निकलने वाली झांकियों को लेकर उन्हें बनाने वाले कलाकारों की विपन्नता से भी व्यथित होती हैं। 
 राष्ट्रीय विमर्श की पक्षधरता, शब्द और भाषा तथा वैचारिक उदारता को लेकर भी वे बहुत मुखर हैं तथा इन विषयों पर उन्होंने जो लिखा है वह बड़ा सारगर्भित है। 
 डॉ. रामविलास शर्मा न केवल प्रख्यात आलोचक थे बल्कि अप्रतिम भाषाशास्त्री, संस्कृतिविद और कलाविद भी थे। उन्हें लेकर भी शोभा ने अच्छा विमर्श किया है। उनका यह कथन अपने स्थान पर बिल्कुल उचित है कि उन्होंने हिन्दी भाषा और हिन्दी साहित्य की अंतर्वस्तु पर ज़ोर दिया तथा एक भाषा वैज्ञानिक के रूप में उन्होंने हिन्दी भाषा के विविध पक्षों को उभारते हुए उसके अध्ययन के वृत्त को विस्तारित किया। वे स्तंत्रता, आत्मनिर्भर भारत में हिन्दी के भविष्य और कोरोना त्रासदी को लेकर भी अपनी चिंताएं जहां एक ओर व्यक्त करती हैं वहीं दूसरी ओर वे इस बात के लिए भी सशंकित हैं कि मनुष्य का अंतिम युद्ध प्रकृति से तो नहीं हो रहा है। अनेक विषयों की पुनरावृत्ति भी उनके द्वारा की गई है जो इन विषयों के प्रति उनकी गहन चिंता को इंगित करती है। 
 उनका एक सुंदर निबंध आंसुओं और पसीने के विभेद को लेकर भी है तथा इसके माध्यम से वे अपनी समकालीन परिस्थितियों और विसंगतियों को भी रेखांकित करती हैं। साहित्य की स्वतंत्रता, लोकतंत्र में व्यवस्था की मानवीय ईमानदारी से लेकर डिजिटल साक्षरता, महिला सुरक्षा तथा शिक्षक और शिक्षा नीति तक उनका वैचारिक संजाल विभिन्न निबंधों और आलेखों में फैलता दिखाई देता है। 
 एक प्रखर समाचार पत्र ‘अग्निधर्मा’ की संपादक होने के कारण उनकी सूक्ष्म दृष्टि अंतर्राष्ट्रीय राजनीति पर भी पड़ती है। वे अमृता प्रीतम से भी प्रभावित हैं और विभाजन की उन चुनौतियों को लेकर भी चिंतित हैं जो आज भी अशेष नहीं हुई हैं। हमारे आज के समय में हो रहे अपराधों को लेकर भी उन्होंने अपने विचार रखे हैं। आचार्य रजनीश की दृष्टि में क्या है प्रेम इसे लेकर भी उनका एक निबंध है। भाषा, धर्म, कॉरपोरेट जगत, अंग्रेज़ी की अपरिहार्यता और महामारी से उपजी विसंगतियों को लेकर भी उनकी चिंताएं मुखर हुई हैं। 
 समग्र रूप में डॉ. शोभा जैन के इन निबंधों में हमारे आज के युग की विसंगतियों को तो रेखांकित किया ही गया है अपनी ओर से समाधान भी सुझाए गए हैं। वे एक आशावादी सर्जक हैं इसलिए उनके लेखन में आशावाद के स्वरों का गुंजन निरंतर सुनाई देता है।
 इन निबंधों और आलेखों से गुज़रते हुए मुझे यह आश्वस्ति मिली है कि आज की नई पीढ़ी का सूरज भी अपने समूचे प्रभामंडल को लिए उदित हुआ है और शोभा जैसे रचनाकारों ने इस सूरज की रश्मियों को और रेशमी, और प्रखर तथा और दीप्तिमय स्वरूप देकर हमारे सर्जनात्मक जगत को एक उज्जवल और आशा से भरपूर, भोर की सौगात सौंपी है।
 मैं हृदय से इस भोर का अभिनंदन करता हूं। 
समीक्षक - नर्मदा प्रसाद उपाध्याय 
लेखक --डॉ शोभा जैन 
कृति --समकाल के नेपथ्य में 
प्रकाशक --भावना प्रकाशन नई दिल्ली



 

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