पुस्तक समीक्षा
विभिन्न गुंजलकों को परखती दृष्टि : ‘समकाल के नेपथ्य में’
प्रो.अमिता मिश्रा,नई दिल्ली
पुस्तक
समीक्षा --
विभिन्न गुंजलकों को परखती दृष्टि : ‘समकाल के नेपथ्य में’
प्रो.अमिता मिश्रा,नई दिल्ली
निबंध
जैसी गंभीर विधा स्त्री लेखन के दायरे में अधिक विस्तृत न हो सकी |इन दिनों
कविता,लघुकथा और कहानी लेखन की बयार है |कह सकते हैं हमने महावीर प्रसाद द्वेदी और हजारी प्रसाद जी
की परम्परा के बाद गंभीर वैचारिकी निबंधों में एक लम्बा अंतराल देखा |
डॉ.शोभा जैन बतौर समीक्षक हिंदी साहित्य में एक अलग पहचान रखती हैं कई महत्वपूर्ण
कृतियों की समीक्षा उनकी नजर से गुजरी है |ऐसे में अपने समकाल पर उनकी दृष्टि एक
समीक्षक एक आलोचक हमें दिखाई देती है जब निबंध जैसी गंभीर विधा की परम्परा को पोषित करने के लिए वे
प्रवेश करती हैं अपनी नवीन प्रकाशित कृति
‘समकाल के नेपथ्य में’ के साथ | एक बेहतरीन आवरण के साथ अपने समकाल की परतें खोलता
संग्रह भावना प्रकाशन नई दिल्ली से प्रकाशित हुआ है | कृति में लेखिका अपने निबंधो
में साहस और संवेदनशीलता के साथ अपने विचारों को रखती हैं। वे अपने निबंधों में
बने बनाए उन ठीहों को तोड़ने की कोशिश करती हैं जो आज की सरपट भागती दुनिया के जीवन
का महत्वपूर्ण हिस्सा बन चुके हैं। उनकी लेखनी का प्रवाह गरीब,मजलूमों, स्त्रियों और बच्चों की ओर उन्मुख है जो
हमारी सामाजिकी का एक महत्वपूर्ण हिस्सा हैं। वह अन्यायों से लगतार आंख मिलाती
चलती हैं यही सामाजिकी दरअसल उनके लेखन का मूल क्षेत्र है। वे स्वीकार करती हैं कि वे स्वयं को आलोचनात्मक लेखन के ज्यादा नजदीक पाती हैं। मन में
उठे सार्थक प्रश्नों के उत्तर खोजने के लिए वे आलोचना की दिशा में चलती हैं। संवेदना के तंतु उन्हें समाज की
रद्दोबदल के लिए विह्वल करते हैं ।
प्रश्न है कि दुनिया में हजार तरीके
के गम हैं जो सबके हिस्से आते हैं । कुछ गमों,कुछ
कष्टों का इलाज इस
बेमुरव्वत दुनिया में किया जा सकता है पर यहां तो एक धुंध में सब समाये बैठे हैं
हर तरफ लेन देन के चश्मे हैं। संवेदनशील व्यक्ति को यह यन्त्रणा लगती है। किस तरह निकाले कोई ऐसे रास्ते,ऐसी गलियां जिन रास्तों पर चलकर कुछ बदला जा सके । कुछ नजरों के सैलाब इधर
भी बांधे जायँ। जैसे - कभी सती प्रथा और बंधुआ मजदूरी को आंदोलनकारियों ने अपनी एकजुटता
से खत्म किया था । लेखिका नए ईजाद हुए हिंसक पहलुओं पर बौद्धिक
दृष्टिकोण रखती हैं । आखिर यह कारवां और कितना आगे जाएगा। गोपालदास नीरज की
पंक्तियां हैं जिनका उल्लेख उन्होंने किया है -
"अब तो मजहब कोई ऐसा भी चलाया जाय।
जिसमें
इंसान को इंसान बनाया जाय। "
मुक्तिबोध की कविता याद आती है-
'
भूल गलती आज बैठी है जिरहबख्तर पहनकर ' शोभा जी अपने लेखों में कहती हैं
हम अनेक भूलों और गलतियों के दोषी हैं। वे प्रश्न उठाती हैं कि जब हम देश के किसी एक
सम्प्रदाय को श्रेष्ठ ठहरा रहे होते हैं। तब कुछ गम्भीर विषयों पर परदा किया जा
रहा होता है। " इंसान शायद यह भूल चुका है कि वो ईश्वर रचित अनुपम कृति है । इस
कृति को जिस तरह से विक्षिप्त किया जा रहा है, यह हमारी
मानवीयता पर प्रश्नचिन्ह लगाता है।"
मजहबी
राजनीति पर प्रश्न उठाना एक बुद्धिजीवी की नैतिक जिम्मेदारी है क्योंकि इस
मजहब की आड़ में बहुत कुछ खेत हो जाता है।
आज आजादी के करीब 75 वर्षों के बाद भी हिंसा,यौनिक हिंसा और दुर्व्यवहार की खबरें वैसी ही हैं। इतनी सारी जागरूकताओं
के बावजूद हिंसा के विभिन्न कुत्सित रूप आंखे नम कर देते हैं। कठुआ और निर्भया
कांड जैसी बड़ी और वीभत्स घटनाएं। अपराधियों को सजाएं होती हैं पर दूसरी ओर घटनाएं तुरत ही अपना मुंह उठा
लेती हैं। शोभा जी प्रश्न करती हैं कि ये सजाएं आखिर सबक क्यों नहीं बनती।
" अपराध का नशा इतना गहरा हो रहा है कि वह अपराध की सारी मर्यादाएं भूल चुका है जिसे
हैवानियत कहा जाता है।"
ये
सारे प्रश्न शोभा जी की वैचारिक यात्रा में पड़ने वाले पड़ाव हैं । जिनका
आसमान कुम्हलाया हुआ है। उन्हें उनके हिस्से का आसमान वापस कैसे सौंपा जाय
….! वे सुनिश्चित करती हैं मानव यात्रा के वे मानचित्र जिसमें वह
इंसान होने से बचता है। पुस्तक की शुरुआत मनोगत में वे लिखती हैं-" वैसे तो हरेक सामाजिक घटना में हमारी दृष्टि और समझ को एक नयी सतह पर ले
जाने की क्षमता छिपी रहती है पर जिंदगी का प्रवाह यह मौका नहीं देता कि हम इस
क्षमता का पूरा लाभ उठा सकें। ज्यादातर घटनाएं अपने वक्त की जटिल ज्यामिति को
छिपाए ही हमारी याददाश्त की साप्ताहिक और मासिक हदें पार कर जाती हैं और हमें अपनी
समझ और संवेदना के पुराने धरातल पर छोड़ देती हैं।"
निबन्धों
की इस श्रृंखला में करीब 55 गंभीर निबंध
संग्रहीत हैं। जिसमें भिन्न -भिन्न आयामों पर विचार किया गया
है। लोकतंत्र में मालिक कौन,सेवक कौन, दर्द
की कोई सरहद नहीं होती, 'स्त्री' जीवन
का केंद्रीय प्रश्न,आधुनिकता बनाम परम्परा, साहित्य में मॉब लीचिंग, सियासत का जख्म और दर्द से कराहती दिल्ली, शब्द भाषा
की देह में प्राण की तरह, कानून की किताबों में दम तोड़ती
महिला सुरक्षा की बातें,अपराधों को आखिर कौन सा हस्तक्षेप
विराम देगा, कॉर्पोरेट सत्ता का नया आयाम,सबै सयाने एक मत,हर अंधेरे को उजाले में बुलाया जाय जैसे-निबंधो
को कई दृष्टियों से
खंगाला गया है।आज भी जबकि स्त्री लेखन और दलित लेखन साहित्य में अपनी सशक्त भूमिका
निभा रहा है । ऐसे में यह प्रश्न और भी महत्वपूर्ण हो जाता है कि क्या सत्ताएं उसी
तरह व्यवहार करती रहेंगी जिस तरह वे कर रही हैं। स्त्रियां ,बच्चों
के लिए इस पितृसत्त्ताक व्यवस्था में स्पेस कितना है …..इसकी
तलाश आवश्यक है। व्यवस्था स्पेस देने को तैयार नहीं है इसलिए वह हिंसा पर उतरती है
और मनुष्यता के सारे उपहार अकारण ही छीनकर ले जाती है। शोभा जी लिखती हैं कि यहां शायद ही ऐसी कोई जगह
हो जहां लैंगिक शोषण न हुआ हो। अभिप्राय यह कि जिस स्त्री पवित्रता की बात इस देश
में होती है उसे हिंसा से कितना बख्शा गया है।
दिल्ली
में जब निर्भया कांड हुआ तो उसके बाद सरकार का यही प्रयास रहा कि ऐसी बर्बरता पुनः
न दोहराई जाय। पर गोरखपुर,कठुआ,उज्जैन, भोपाल,अलीगढ़ जैसे कई
शहरों में ये गुनाह मासूमों के साथ हुए। देश के कठुआ कांड में आरोपियों को आजीवन सजा
हुई पर ये सजाए
अपराधियों के लिए सबक नहीं बन पाती। शोभा जी लिखती हैं- 'अपराध
का नशा इतना गहरा हो रहा है कि वह अपराध की सारी मर्यादाएं भूल चुका है जिसे
हैवानियत कहा जाता है।' वे मानती हैं कि मजहबी सियासत से परे
होकर अपनी सार्थक उपस्थित दर्ज करना हम सबका कर्तव्य होना चाहिए।
शोभा
जैन
'लोकतंत्र में मालिक कौन,सेवक कौन' में विंस्टन चर्चिल का एक चर्चित वक्तव्य उदधृत करती हैं- " लोकतंत्र सबसे निकृष्ट शासन पद्धति है सिवाय उनके जिनकी परख पहले की जा
चुकी है।….एक छोटा आदमी ,एक छोटे बूथ
में प्रवेश कर ,एक छोटी पेंसिल से कागज के एक छोटे टुकड़े पर
एक छोटा निशान बनाकर एक बड़ा फर्क लाता है। यानी लोकतंत्र में छोटे आदमी की सीधी और
बड़ी भागीदारी है।" लेखिका मानती है यह हमारे देश का
दुर्भाग्य है कि इस छोटे व्यक्ति की भूमिका सिर्फ मतदान तक सिमट कर रह गयी है।
जनता के हित में लिए गए निर्णयों में उसकी ही सहभागिता नहीं रह पाती जो उनको निराश
करती है।
लेखिका
पुस्तक के हवाले से कहती हैं कि लोकतंत्र में पारदर्शिता आवश्यक है। उदाहरण के लिए जिस तरह से इस देश में कृषि
कानून को लेकर पूरे साल आंदोलन चला और उसके विरोध हुए । साथ कई तरह के नफा -नुकसान जुड़े रहे इसमें सरकार का पहला नैतिक दायित्व यह था कि वह उस सच्चाई
को जनता तक पहुंचाएं। उनका मानना है कि 'जो भी कानून जनता के
हितों के लिए बनाए जा रहे हैं उसे जनता को जानने -समझने के
लिए साधन मुहैया कराना लोकतंत्र की विश्वसनीयता को बढ़ाता है। इन लेखों में शोभा जी एक सार्थक
हस्तक्षेप करती हैं।वे सशक्त रूप से विभिन्न मुद्दों पर अपने विमर्श को लेकर आगे
बढ़ती हैं। यह देश विभिन्न जातियों ,समूहों, वर्गों में बंटा हुआ है अक्सर किसी मजहब ,सम्प्रदाय
को लेकर झगड़े हो जाते हैं फिर वह आंदोलन हिंसक रूप ले लेता है। लोगों की जाने तक
चली जाती हैं ये प्रदर्शन कई बार बेहद भयानक और उग्र रूप ले लेता है।ऐसे में किसी
राष्ट्र के लिए यह आवश्यक नहीं है कि जब लोक का ही तंत्र है तो लोक की भावनाओं,
उसकी इच्छाओं की कद्र करते हुए कोई भी योजना शुरू करने से पहले जनता
से उसकी राय ली जाय उसके साथ विमर्श किया जाय। " इकोनॉमिस्टी
इंटेलिजेंस यूनिट की एक रिपोर्ट के अनुसार केवल 15 प्रतिशत
देशों में पूर्ण लोकतंत्र है तथा विश्व के लगभग एक तिहाई देशों में एकाधिकारवादी
व्यवस्थाओं का शासन है। इस पृष्ठभूमि में अपने शासकों का चयन करने के लिए मतदान
करने वाले लाखों भारतीयों को देखना न केवल अनुकरणीय होना चाहिए बल्कि इस बात में
भिन्नता करना मुश्किल हो सके कि शासक कौन ,सेवक कौन।"
इसी प्रकार एक अन्य निबन्ध है - " सियासत
का जख्म और दर्द से कराहती दिल्ली "
जिसमें
वे निदा फ़ाज़ली की पंक्तियां उद्धत करती हैं-
"
ये कंकड़ पत्थर की दुनिया। इंसान की कीमत क्या जाने।
दिल
मंदिर भी है दिल मस्जिद भी है । ये बात सियासत क्या जाने ।
ये
पंक्तियां बहुत कुछ कहती हैं कि सत्ता के बीच किस प्रकार व्यक्ति की इच्छाओं का दमन होता
है । सियासत की इस भट्टी में वह हवन होता है उसकी भावनाएं,सम्वेदनाएं
हर क्षण कुचली जाती हैं और यही बात कई बार आक्रामक रुख अख्तियार कर लेती है। ऐसे उग्र
माहौल में मीडिया भी बहुधा ही वही नफरत की भाषा को प्राप्त कर लेती है। गांधीवाद
और शांतिवाद की बातें करते हुए हम आचरण की भाषा में हिंसा चुन चुके होते हैं और यही हिंसा आंदोलनों के समय
में वीभत्स रूप ले लेती है। लोगों की निर्मतता से हत्या कर दी जाती है उसे शब्दों
में बयान नाम किया जा सकता। असहमति और मतभेद किसी और तरीके से भी दर्ज कराया जा
सकता है। समाज की यह
टूटन ठीक वैसे ही है जैसे संयुक्त परिवार की टूटना । जहां व्यक्ति असहमति के अतिरेक में बंटवारे की
बलि चाहता है। ऐसी राजनीति कहीं केवल अपराधीकरण और विद्रोह का पर्याय न बन जाए। जिस तरह से इस देश में दंगे
इत्यादि एकदम से दहक जाते हैं उसमें बहुत आत्मसंयम और धैर्य की आवश्यकता है ताकि
सत्ता भक्ति के बजाय देशभक्ति को तरजीह मिल सके।
शोभा
जी लगातार अपने इस लेखन के सफर में उन सारे सवालों को सामने लाने का प्रयास करती
हैं जो देश ,समाज में गैरबराबरी कारण बने
हुए हैं। किसी भी
देश के लिए यह कितने अचरज की बात है कि वह अपनी गरीबी,बेरोजगारी
और दूसरी जरूरी दिक्कतों को न खतम करके इन दंगों की आग में उलझा रहे। यह वाकई उस
देश के नागरिकों और आने वाली पीढ़ियों के लिए खतरनाक है।
देश
में महिला अधिकारों को लेकर कितने ही कानून बनें पर कानूनों का पालन न के बराबर ही
होता है। यह एक पितृसत्त्तात्मक सामाजिकी की निर्मित है जिसके आसपास बौने होते कानून
हैं। एक सिरफिरापन है इस सामाजिकी के
अंदर जिसे किसी और मिट्टी से निर्मित किया गया है। जिस काई को ,जिस गंदलेपन को कानून छांट नहीं पाता। स्त्रियों और दलितों के साथ यही
रहा उनके लिए कानून बनें पर कानून की पकड़ उन पर रखे जख्मों
को भरने में नाकामयाब रही। एक लेख है-" कानून की
किताबों में दम तोड़ती महिला सुरक्षा की बातें " जिसमें
वे लिखती हैं कि -कि मनुष्य ने विज्ञान और प्रौद्यौगिकी की
सहायता से पृथ्वी को जीत लिया है । इसे हम केवल तकनीकी विकास का युग कह सकते हैं
पर इन चमत्कृत
उपलब्धियों के बीच खौफ भरे माहौल में कोई कमी नहीं आ रही है । देश में निरंतर
महिला अपराध बढ़ रहे हैं। इसके लिए वे नेल्सन मंडेला को उद्धृत करती हैं कि
- '' किसी समाज का वास्तविक आकलन इससे होता है कि वह अपनी स्त्रियों
और बच्चों के साथ कैसा व्यवहार करता है।''
सामाजिक रूपरेखा पर एक विस्तृत नजर डालने पर पता चलता है कि
देश को स्वतन्त्रता मिल जाने के इतने वर्ष पश्चात भी महिलाओं और बच्चों के लिए कोई
उस तरह की तरक्की दिखाई नहीं पड़ती जिसमें वे अपने आप सुरक्षित और समृद्ध महसूस कर
सकें। आये दिन स्त्रियों और बच्चों के साथ किये गए क्रूर हिंसक व्यवहार हमें
मनुष्यता की ओर उंगली उठाने को बेबस कर देते हैं।
ग्रामीण
इलाकों में जिस तरह से बेरोजगारी और हिंसक घटनाएं देखने को मिलती हैं वहीं शहरी
जीवन में भी हद दर्जे की क्रूरता देखने को मिल जाती है। दरअसल प्रश्न यहां इस बात
का है कि मनुष्यता के संदर्भ में किये गए कार्यो का संदर्भ दिन पर दिन कमजोर हो
रहा है। बाजारवाद और नवसाम्राज्यवाद ने ऐसा उपक्रम गढ़ा है कि मनुष्य उसी में जकड़ता
चला जा रहा है। संविधान की मोटी पुस्तक बगल में तो रखी पर उस पर अमल कम से कम किया
गया । यह इस देश का दुर्भाग्य ही है कि
स्वतंत्रता, समानता, बंधुत्व के असली
सरोकार अलक्षित ही रहे। संस्कृति का
बहाव साथ चला पर मनुष्यता के जख्मों के भराव में हम भटकाव
की स्थिति में ही रहे। शोभा जी कार्पोरेट सत्त्ता से लेकर हर तरफ के इन निषेधात्मक
तत्वों पर उंगली उठाती हैं। जो हमारे जड़ होते जा रहे सिस्टम और भागीदारी की वास्तविकता खोलते हैं।
शोभा
जी के लेखों के संदर्भ में प्रसिद्ध लेखिका चित्रा मुदगल जी का कथन है कि
" यह छोटे आकार के लेख अपने आप में सामाजिक सरोकारों को
रेखांकित करते हुए जिस
बेबाकी से उनके मनोविज्ञान की पड़ताल करते हैं और मशविरा भी देते हैं वह सोचने पर
बार-बार विवश करता है। दरअसल यह गागर में सागर की तरह के लेख
हैं।"
पुस्तक
" समकाल के नेपथ्य में
" निश्चित रूप से गम्भीर प्रश्नों को हमारे सामने
बेबाकी और संवेदनशीलता से उठाती हैं। यहां यह भी महत्वपूर्ण है कि एक स्त्री लेखक के तौर पर शोभा जी जिस वैचारिकी से साक्षात्कार
कराती हैं वह अन्य स्त्री लेखन में
अपनी जगह सुनिश्चित करे तो संभावनाएं अधिक रास्ते तलाश पाएंगी। स्त्री
लेखन को कविता, कहानी और उपन्यास के क्षेत्र के अलावा
वैचारिक सन्दर्भों में भी अपने विचारों
के लिए जगह तलाशनी होगी । समकाल के नेपथ्य में उसी की अभिनव
कड़ी है |
समीक्षिका
अमिता मिश्र
असिस्टेंट प्रोफेसर
लक्ष्मीबाई कॉलेज,
नई दिल्ली
पुस्तक का नाम ---समकाल के नेपथ्य
में
लेखिका –डॉ.शोभा जैन,इंदौर
प्रकाशक –भावना प्रकाशन नई दिल्ली
मूल्य –275/-
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