Monday, January 17, 2022



 समकाल के नेपथ्य में --हिंदी साहित्य के  सशक्त हस्ताक्षर डॉ.पिलकेंद्र  अरोरा  जी  की टिप्पणी 

कोई व्यंग्य -संग्रह होता तो समीक्षा की आदर्श परम्परा के अनुसार आवरण -अनुक्रम देख कर समीक्षा कर डालता! पर यह तो 'द्विवेदी युग' जैसे गंभीर -चिंतनपरक निबंधों का  संग्रह है! सो अंतरात्मा जगी और समीक्षक सहमा! लगा कि तैर कर समीक्षा संभव नहीं, डूबना ही पड़ेगा! फिर लेखिका का संबंध एक अखबार से है और मुझे अग्नि से बहुत डर लगता है....! इसलिए समीक्षा अभी जारी है!

एक स्थगित समीक्षा....!

एक शब्द है माया, जिसके जाल में हम प्रायः उलझ जाते हैं। माया के कारण जो सत्य है ,वह असत्य लगता है और जो असत्य है ,वह सत्य ..! विश्व के रंगमंच पर जो भी दृश्य है माया है ,असत्य है ,भ्रम है,भ्रांति है.!

यथार्थ और सत्य तो सदा नेपथ्य में ही रहा है। ‘समकाल के नेपथ्य में’ लेखिका डा. शोभा जैन ने आज के विषमकाल के उन सत्यों का चित्रण किया है जिसका संबंध समय और समाज से है। धर्म, समाज, राजनीति, शिक्षा ,भाषा, साहित्य आदि क्षेत्रों की विसंगतियां उन्हें विदग्ध करती हैं और परिवेश में परिवर्तन के लिए वे अग्निधर्मा हो जाती हैं। 

भावना प्रकाशन नईदिल्ली द्वारा प्रकाशित पुस्तक का आकर्षक आवरण, प्रभावी शीर्षक, कलेवर , साज-सज्जा, श्रेष्ठ कागज ,सुंदर मुद्रण ज़हां पुस्तक का बाह्य सौंदर्य है ,वहां 183 पृष्ठों में संकलित 55 चिंतनपरक निबंधों में विचार और अनुभूति का अद्भुत आंतरिक सौंदर्य है।

अपनी 'नई सरल समीक्षा गाइड' के आधार पर मैं पुस्तक की बैठे -ठाले समीक्षा ठोक देता ,पर संग्रह के निबंध 'हिंदी साहित्य समाज के हाशिए पर क्यों?' ने मुझे एक साहित्यिक अपराध से बचा लिया। इस निबंध में लिखा है कि इस समय साहित्य में शब्दों का खेल खूब खेला जा रहा है। शुद्ध समीक्षक आलोचक कम हैं और उनकी स्थिति दयनीय है।समीक्षा कालम औपचारिक बन कर रह गया है। समीक्षक गंभीर नहीं हैं। वे पुस्तक के आकार ,पृष्ठ संख्या, प्रकाशक, मूल्य , पुराने प्रकाशनों के उल्लेख के साथ समीक्षा की इतिश्री कर लेते हैं!

 निबंधकार की चिंता है कि हिंदी में प्रतिवर्ष प्रकाशित16000 पुस्तकों में 16 ही श्रेष्ठ होती हैं और उन 16 का भी सही मूल्यांकन न होना साहित्य को हाशिए पर धकेलता है। इस समय भाषा बीमार है। विचार अवकाश पर है। चिंतन सीमित है

इस निबंध को पढ़कर मैंने फटाफट समीक्षा का विचार त्याग दिया । पता नहीं भाषा कब स्वस्थ होगी! विचारों का अवकाश कब समाप्त होगा! फिर कहीं मेरी कथित समीक्षा भी माया की तरह असत्य न हो... ! साहित्य के रंगमंच पर वह शब्दों का अभिनय मात्र न बन जाए...! अतः क्यों न कुछ समय - काल के बाद 'समकाल के नेपथ्य में 'प्रवेश कर उसके सत्य को प्रस्तुत किया जाए! इसलिए समीक्षा स्थगित  ...! पर  रिहर्सल जारी है......!

 Pilkendra Arora

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