Monday, January 17, 2022


समकाल के नेपथ्य में --हिंदी साहित्य के  सशक्त हस्ताक्षर डॉ.मुरलीधर चाँदनीवाला   जी  की टिप्पणी 

दायित्व हमारे भी कुछ कम नहीं
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एक अच्छा निर्देशक और सूत्रधार ठीक समय पर अपने पात्र को नेपथ्य से बाहर लाता है। समय का चुनाव उसका अपना होता है, और वही तय करता है कि उसके पात्र की वेशभूषा क्या होगी, उसके संवाद क्या होंगे। एक अच्छा लेखक और साहित्यकार इस सूत्र को समझता है। वह अपनी लेखनी को थामे हुए जो सोचता है, विचार करता है, वह नेपथ्य में चल रही उथल-पुथल को उस मंच पर लाने के लिये होता है, जहाँ की दीर्घा सुधीजनों से आबाद है।
डाॅ. शोभा जैन की पुस्तक 'समकाल के नेपथ्य में' भले ही उनकी प्रथम कृति हो, लेकिन उनके पाठक भलीभाँति जानते हैं कि वे लम्बे समय से समकाल के नेपथ्य से हमारे समय के चरित्रों को उजागर करने का जोखिम उठाती रही हैं। वे उसकी तैयारी बहुत शालीनता और अनूठे तरीके से करती हैं। वे न केवल कृतज्ञ लेखिकाओं की श्रेणी में आती हैं, अपितु बिना किसी उत्तेजित स्वर और विरोध के बावजूद अपनी बात को पूरी सामर्थ्य से मंच पर ले आती हैं।
उन्होंने अपनी इस महत्वपूर्ण कृति के 'मनोगत' में एक छोटा सा सूत्र दिया है-' हर समकाल का एक नेपथ्य होता है। उसके बाहर आने की छटपटाहट ही खाली कागज़ों का जीवन भर देती है।' यह खाली कागज़ों का जीवन है, इसीलिए आशाओं से भरा है। यह जीवन है, इसीलिए इसमें विचारों की वह मस्ती है, वह उमंग है, जो हमें जीवन का राग सुनाती है। डाॅ. शोभा जैन के ' समकाल के नेपथ्य में' चुने हुए वे चौपन निबंध संकलित हैं, जो पूर्वपठित होकर भी नयी ताजगी देते हैं, कुछ प्रश्न खड़े करते हैं, कुछ हमारी जड़ता को तोड़ते हुए हमें खुली हवा में ले आते हैं।
डाॅ. शोभा जैन हिन्दी साहित्य की गम्भीर अध्येता हैं। समालोचना के उनके अपने सिद्धांत हैं, अपनी बारीकियाँ हैं। सबसे अच्छी बात यह है कि वे दुनिया को एक ही चश्मे से नहीं देखती, न वे किसी निश्चित् विचारधारा से बंधी हुई हैं। वे पाठकों को इसलिये प्रिय हैं, क्योंकि उनका अंतरंग और बहिरंग एक है, उनके निष्कर्ष तक पहुँचने के सब रास्ते अलग-अलग होकर भी एक जगह जाकर मिलते हुए प्रतीत होते हैं। पत्रकारिता के क्षेत्र में दखल रखने वाले के लिये यह सहज नहीं है, लेकिन डाॅ. शोभा जैन के यहाँ यह सब सहज है।
डाॅ. शोभा जैन का ' समकाल के नेपथ्य में' उस समय आया है, जब समकाल के नेपथ्य में पल-पल ऊँच-नीच है, घट-बढ़ है, तमाशा है, हाथापाई है, गुस्सा है, यंत्रणा है और अजीब किस्म का शोषण है। सज्जन और बुद्धिजीवी समझे जाने वाले आबालवृद्ध निष्क्रिय बने हुए हैं, और दुर्जन पूरी सतर्कता के साथ बुद्धिजीवी होने का ढोंग करते हुए बेहद सक्रिय बने हुए हैं। डाॅ. शोभा जैन हमारे बीच हमारी जवाबदार प्रतिनिधि के रूप में है। उनकी आँखों से हम देख पा रहे हैं कि समकाल के नेपथ्य में आखिर क्या चल रहा है। इसके बाद के दायित्व हमारे भी कुछ कम नहीं। लेखक अपने अग्निधर्म का निर्वाह करता हुआ हमें रास्ता दिखा सकता है, किन्तु चलना तो हमें ही है।
मुरलीधर --
 

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