Monday, January 17, 2022


हिंदी साहित्य के सशक्त हस्ताक्षर प्रो बी.एल.आच्छा जी की टिप्पणी 

डॉ शोभा जैन की पहली पुस्तक। का स्वागत। भावना प्रकाशन, दिल्ली की आकर्षक प्रस्तुति। सौभाग्य से मुझे इसे पढ़ने और लिखने का अवसर मिला।
  समय सचेतन वैचारिकी का स्पंद-------
                           बी. एल. आच्छा
        नवीनता हर समय दस्तक देती रहती है। न तो इतिहास की परतों में जीया जा सकता है, न भविष्य के यूटोपिया में।इसीलिए भारतीय काल-चिंतन इतिहास के सार्थक का ग्रहण और निरर्थक के त्याग का हिमायती रहा है। हम इतिहास, संस्कृति, विरासत, जीवन शैली का कितना ही गुणगान करें। या कि सांस्कृतिक धाराओं की जातीय अस्मिता से कटकर विचारधाराओं का पल्लू पकड़ लें, पर सिद्धि तभी मिलती है ,जब अतीत का नवनीत मार्गदर्शी हो।  विचारधाराएँ जीवन प्रवाह की सततता को नवोन्मेषी बनाती हों। ग्रहण और त्याग नवीन के स्वीकार का अनेकांत है।
           डॉ० शोभा जैन के इस वैचारिक अनुष्ठान में यही जीवन दृष्टि
है, जो ''न तो अतीत-रागऔर न विचारधाराओं के संकरीले प्रवाह से बँधी हैं।बल्कि  समकाल के नेपथ्य में मुखर प्रतिध्वनियों को हाशिए से निकालकर मुख्य पृष्ठ पर लाती हैं। वे साफ कहती हैं कि म्यूजियम बन जाने के बजाय अपनी जड़ों को संजोता नवोन्मेष जरूरी है। इसीलिए ये वैचारिक स्पन्दन जितना जंग छुड़ाते हैं, उतने ही समय के अनुकूल जीवन मूल्यों के लिए प्रेरित करते हैं?
              इन निबंधों में विचारधाराओं के सारे अक्स उतरकर आये हैं। चाहे राष्ट्रीय अस्मिता हो। उदारवाद हो, साम्यवाद हो, विस्तारवादी आर्थिक साम्राज्यवादिता के बाजार हों, सैन्यवाद हो या आतंक के गठबंधन । इन सभी के बीच जन आक्रोश, मानवीय चिताएँ, कमतर संसाधनों वाले वर्ग की चुनौतियाँ शोर मचाती हैं। ये प्रतिध्वनियाँ व्यक्ति चिंता से विश्व चिंता तक जाती हैं;मनुष्य से मानवीयता तक । लेकिन राष्ट्रीय जीवन मूल्यों को अतिक्रांत नहीं करतीं। लेखिका ने इतिहास के ऋण और भविष्य की पुनर्रचना में राष्ट्रीय स्वरूप के नवोन्मेष की वकालत की है। इसीलिए बाजार-युद्ध, सांस्कृतिक आघात, जन आक्रोश की बदलती राजनीति, हिंसक चेहरों की हृदयहीनता, विश्व व्यवस्था में सामान्य जन के पोषण और लोकतांत्रिक चेतना के कई अक्सों पर खुलकर बात की है।
              बदलाव की प्रतिध्वनि में कहीं बदलती तकनीक और रोबोट के साथ आर्टिफिशियल इंटेलीजन्स भी चिंताधारा बने हैं। मानवीय श्रम और रोजगार की चिंताएँ भी। पर इससे भी आगे तकनीक और रोबोटी सभ्यता के आगे मानवीय अस्मिता का सवाल भी। कई पश्चिमी विचारकों की चिन्ताएँ भी इन निबंधों का जाग्रत पक्ष है-"हम एक ऐसी सदी में प्रवेश कर रहे हैं, जहाँ ज्ञान-बोध का संकट एक प्रकार से यूटोपिया और डायस्पोरिया के बीच टकराहट के रूप में आएगा। इन्हीं चिन्ताओं के बीच कहीं गाँधी झाँक जाते हैं, कहीं गाँधी का सत्याग्रह ।कहीं गाँधी के आन्दोलन सत्याग्रहों के मूल में नारी की भूमिका।  गाँधी स्वीकार करते हैं कि उन्होंने सत्याग्रह आंदोलन देश की महिलाओं से सीखे हैं। यहीं लेखिका नीति निर्माण,राजनीति, कानूनी प्रक्रिया में स्त्री की सशक्त भूमिका को तलाशती है। और हैरिस के बहाने रेखांकित करती हैं - इतिहास में जो भी अनाम है, वह औरतों
के नाम है।" और स्त्री-विमर्श का सशक्त नारी स्वर सिमोन द बुआ के स्वर में स्त्री मुक्ति के लक्ष्य को हासिल करने की बात भी करती है।
          भाषा और साहित्य के क्षेत्र में
लेखिका वैचारिक पीठिका ही नहीं रचती, बल्कि मुखौटों पर वार भी करती हैं। वे इस मूल प्रतिज्ञा को केन्द्र में रखती हैं-" अक्षर यदि रूप हैं तो शब्द सौन्दर्य | अक्षर यदि आवृत्ति हैं, तो शब्द कृति। अक्षर अपने कलात्मक संयोजन में कला-कर्म हैं, तो अक्षरों- वर्णों से जुड़ा शब्द भाव-कर्म ।
किन्तु शब्द की सार्थकता अक्षरों-वर्णो का संयोजन मात्र नहीं, सार्थक संयोजन होना चाहिए।"यह 'सार्थकता' जीवन के स्पन्दन और टकराहटों
से आती है, यह स्पष्ट है। वे साफ कहती हैं कि खेमे की चिटें और विचारधाराओं के रंगरोगन
साहित्य को गिरोहबद्ध करते हैं। विचारधाराओं की गुलामी से आक्रांत करते हैं। ममता कालिया की पुस्तक
'कल्चर-वल्चर' के बहाने वे भीड़ और लेखकीय संवेदन  के बीच की फांक को भी लक्षित करती है।सृजन के पुरस्कारवादी, गिरोहवादी, महिमा- मंडनवादी,करतल ध्वनिवादी चेहरों के साथ प्रतिरोध के साहित्य में विवेक की अवधारणा को तलाशती हैं।
            निश्चय ही इन निबंधों में लेखिका का जाग्रत टिप्पणीकार जितना नेपथ्य के असल को सामने लाता है, उतना ही मानवीय विवेक के साथ प्रतिरोध की स्वचेतना को भी। वे विचारधाराओं के बीच केवल चहलकदमी नहीं करतीं, बल्कि उसके जीवनसापेक्ष सार्थक को वैचारिकी में लाती हैं। भीड़ के आक्रोश में केवल बहुमत को नहीं देखती, बल्कि राजनैतिक निहितार्थों से अलग जन-संवेदन के करुण- पक्ष को साझा करती हैं। इसीलिए टर्निंग पाईट' के साथ विवेक की पक्षधरता इन चिंतनाओं के मूल में है।
         इन निबंधों का खुला आकाश हमारे सोच का अनेकान्त है ।यह बन्द गलियों का आरवरी मकान नहीं बनता, बल्कि उसे ध्वस्त कर नये रास्ते का सोच बनाता है। लेखिका के पास वर्तमान का कोलाहल है, पर अतीत निरपेक्ष नहीं' । सांस्कृतिक मूल दृष्टि है, पर वर्तमान के संजीवन के लिए। समर्थ भाषा है, जो कई विद्वानों के विचारों से जुड़ती-टकराती हुई पाठक को भी नया धरातल देती है। इन निबंधों का स्वागत होगा, जागरण के नये अध्याय के रूप में। और  मानवता के पोषक भविष्य की चिंतना के रूप में।
बी. एल .आच्छा
********'समकाल के नेपथ्य में' पढ़ने के इच्छुक  सभी सुधी पाठकों के लिए शीघ्र ही यह अमेजन ( Amazon) पर उपलब्ध होगी | ********
 

No comments:

दैनिक स्वदेश में प्रति रविवार स्तंभ का लेख